باپو کی وراثت
افادیت پسندی کی روایت میں
سبھی کا ہوتا رہا ہے استعمال
تمھارا بھی ہوا ہے، اور
آگے بھی ہوتا رہے گا
ڈاک ٹکٹوں پہ، رنگین نوٹوں پر
تمھاری تصویر چھاپی گئی
اور چمکتے ٹکسالی سکوں پر
کندہ کی گئی تمھاری شبیہ
مجلسِ قانون ساز کے آنگن میں
دفاتر اور اداروں میں
نصب کئے گئے تمھارے مجسمے
تزئین کی خاطر ہی سہی
نجانے کیوں محسوس ہوتا ہے
نوٹوں پر چھپی تصویریں ہیں اداس
ان کی آنکھوں میں کوئی چمک ہی نہیں
صرف ویرانی ہے
تمھارے تصور میں بھی نہ تھا
جس کی خاطر
سب آن بان ٹھکرا کر
تم نے درویشی اپنائی
وہیں اک دن بنایا جائے گا
تمکو نوٹوں اور سکوں کی شناخت
کالے بازاروں کے تاریک گلیاروں میں
سیاسی تجارتوں میں
مجلسِ قانون ساز کی عمارت میں
تمھاری تصویر سے سجے نوٹوں کا ہوگا لین دین
جگہ جگہ نصب تمھارے مجسمے
کچھ مضمحل سے لگتے ہیں
شاید وہاں سے جو نظر آتا ہے
وہ تمھیں اچھا نہیں لگتا
راس آتا نہیں تمہیں یہ سب
کتنے منصوبے اور ادارے
تمھارے نام سے چلائے گئے
تمھارے نام کی افادیت ہے
نام کے مساوات کا ہے استعمال!
پھر بھی ناخوش ہو تم
ہم پریشان ہیں
کس طرح منائیں تمھارا
ڈیڑھ سو سالہ جشنِ ولادت؟
خیر! یہ تو مانو گے
صاف ہندوستان کی یہ مہم
ملک کی شان جو بڑھاتی ہے
فخر کرتا ہے جس پہ ہر باشندہ
یہ تمھارا عطا کردہ تحفہ ہے
تم ہو اس کے برانڈ ایمبیسڈر
پھر بھی اتنے اداس کیوں ہو تم؟
کہیں ایسا تو نہیں
تمھاری نظروں میں صفائی کے معنی
ظاہری گندگی کے ساتھ ساتھ
باطنی کھوٹ، کرواہٹ
تلخی، نفرت، برائی کو بھی دھویا جانا ہے
حکمرانوں نے تمھارا
چشمہ تو لے لیا لیکن
تمھاری نظروں کا کیا؟
اور تمھارا نظریہ!
وہ کہاں اپنا یا؟
نہیں اپنائی وہ نظر
جو سب کو ایک کرتی ہو
بھائی بھائی ہوں ہندو مسلم سب
پرایا درد اپنا ہو
یہی کوشش ہو اب اپنی
بہے نہ خون سڑکوں پر
لگے ہر زخم پر مرہم
کوئی انساں نہ ہو بے دم
“ہمیں ہے یاد وہ غلطی”
گزشتہ وقت جو گجرات میں سرزد ہوئی
تمھاری سر زمیں پر
علم لہرایا فتنوں کا
بہا کر خون کی ندیاں
منایا تھا تمھارا جشنِ ولادت
تمھاری آنکھیں سوال کرتی ہیں
“مجھے ‘بابائے قوم’ کہتے تھے
مری تعلیم کیوں ٹھکرائی بولو؟
پکارتے تھے مجھے ‘باپو’
وراثت کیوں نہیں اپنائی میری؟
آج ایسا کریں
دلّی میں جمنا کنارے
بھُلائے ہوئے اک مزار پر
ٹمٹماتا ہوا وہ ننھا دیا
جس سے روشن ہے دلوں کا چمن
ذہن کی تاریکیوں سے لڑتا ہے جو
ہم بچالیں اسے
کہیں نفرت کی سفاک آندھی کے ہاتھوں
نہ دم توڑ دے
پھر کوئی “سرحدی گاندھی”
ہوکے مایوس
بچشمِ تر، مغموم
الٹے قدموں نہ لوٹ جائے اپنے وطن؟
ہم دلاتے ہیں یہ یقیں ‘باپو’
تم نے روشن کیا جو خوں دیکر
وہ دیا ہم جلائے رکھیں گے
یونہی جلتے رہیں گے چراغ سے چراغ
آندھیوں سے بچائے رکھیں گے
مذہبی جنون ہو یا دنگا، فساد
ایسی ہر ذہنیت کے خلاف
متحد رہیں گے ہم
منائیں گے امن اور بھائی چارے کا جشن
وراثت تمھاری زندہ رکھیں گے
बापू की विरासत
उपयोगितावादी हमारी परंपरा में
हर किसी का इस्तेमाल होता है
तुम्हारा भी हुआ है इस्तेमाल –
आगे भी होता रहेगा।
पहले तुम डाक टिकटों पर छपे
छाए फिर रंग-बिरंगे नोटों पर
चमचमाते टकसाली सिक्कों पर
तुम्हारी छवि उकेरी गई।
संसद भवन के प्रांगण में
दफ्तरों व संस्थानों में
तुम्हारे बुत लगाए गए –
सजावट के तौर पर ही सही।
पर न जाने क्यों लगती हैं
नोटों पर छपी ये तस्वीरें बेजान
इनकी आँखों में वो नूर नहीं –
सिर्फ़ सूनापन है।
शायद तुमने सोचा भी न था
शान-ओ-शौकत को ठुकरा कर
ग़रीबी ख़ुद-ब-ख़ुद अपना कर
तुमको बनना होगा इक दिन
नोटों व सिक्कों की पहचान।
और फिर काले बाज़ारों में
अँधेरे गलियारों में
सियासत की तिजारत में
संसद की इमारत में –
गाँधी छाप नोटों का
होगा आदान-प्रदान।
जगह-बेजगह खड़े तुम्हारे ये बुत
कुछ अनमने से लगते हैं
शायद वहाँ से जो दिखता है
तुम्हें भाता नहीं है –
रास आता नहीं है।
कितनी ही योजनाएँ
उपक्रम और संस्थाएँ
तुम्हारे नाम से चलाए गए –
तुम्हारे नाम की उपयोगिता है
नाम के साम्य की उपयोगिता है।
फिर भी नाशाद हो तुम
तो आख़िर क्या करें हम
मनाएं कैसे तुम्हारा
डेढ़ सौ साला जश्न?
चलो इतना तो मानोगे
स्वच्छ भारत का ये अभियान
जिसने बढ़ाई देश की शान
सभी को जिस पे है अभिमान –
तुम्हारी अपनी पेशकश है?
बने हो उसके शुभंकर
या कहें ब्रैंड अम्बेसडर
उदास फिर भी क्यों हो तुम –
बड़ी भारी है ये उलझन।
कहीं ऐसा तो नहीं है
कि तुम्हारे दर्शन में
शुचिता तभी होती हो
जब बाहर और भीतर
बाह्य और अभ्यन्तर
पूर्व संचित कलुष को
कटुता के कल्मष को –
धो दिया जाए?
हमारे हुक्मरान ने
तुम्हारा चश्मा तो लिया
पर तुम्हारी चश्म का क्या?
औ’ फिर उसका नज़रिया –
वो अपनाया कि ठुकराया?
नहीं अपनाई वो नज़र
कि जिसमें सब हों बराबर
हिन्दू मुस्लिम हों बिरादर
पराई पीर हो अपनी
यही तदबीर हो अपनी
कि ज़ख़्मों पर लगे मरहम
कि सड़कों पर बहे न ख़ून –
फिर कोई न हो बेदम।
हमें है याद वो ग़लती
गुज़रे वक़्त जो गुजरात में की
तुम्हारे अपने सूबे में
किस बदख़्वाह मंसूबे में
फ़ितन के परचम लहरा कर
लहू की नदियाँ बहा कर –
मनाई थी तुम्हारी जन्मशती।
तुम्हारी आँखें सवाल करती हैं
कितना बेहाल करती हैं!
“कहा था राष्ट्रपिता मुझको
विरासत फिर क्यों ठुकराई?
बुलाते थे मुझे बापू
बपौती क्यों न अपनाई?”
आज कुछ ऐसा करें हम
कि दिल्ली में जमुना तट पर
विस्मृत सी एक मज़ार पर
टिमटिमाता हुआ वो दिया
जो स्नेह से जलता है
ज़हनी अंधेरों से लड़ता है
दिलों को रौशन करता है –
स्नेह से रीता होकर
कहीं दम तोड़ न दे!
नफ़रतों की ये बेरहम आँधी
अपने नापाक दामन से
उसको बुझा न जाए!
हो कर मायूस
फिर कोई सीमांत गाँधी
बुझे मन
भीगे नयन
उलटे कदम –
अपने वतन लौट न जाए!
तुम्हें देते हैं आश्वासन, बापू!
हम वो दीपक जलाए रक्खेंगे
दीप से दीप जलाते जायेंगे
सोज़ आँधी से बचाए रक्खेंगे।
ये धर्मोन्माद, ये वहशत
ये दंगे फ़साद-ओ-दहशत
इनकी मानसिकता के विरुद्ध
कृत संकल्प
हो प्रतिबद्ध –
मनाएंगे इक अनूठा जन्मोत्सव!
अमन तस्कीन और सौहार्द का उत्सव।
हक़ीक़त तुम्हारी पाइंदा रहेगी!
विरासत तुम्हारी ज़िंदा रहेगी!