ज़ुबाँ में जैसे रेत भरी है
और बोली में अँधेरा
डर नहीं, दहशत नहीं
यह हैरत की हद है
ये हैरत की हद है कि
सोच के बाहर था कि
इतनी नीचाइयों तक जायेंगे इसके सरदार
कि पशुओं सी खूंखार होगी ये सरकार
इनकी पहली हरकतों पे
खूब गला चिल्लाया
“मत मारो उसे
वो मैं हूँ
मैं वो है – हमारी मिट्टी एक है
जब जब मैंने प्रेम किया
उसकी ज़ुबान से मिठास को
उधार लिया
और जब जब दर्द पाया है
उसी की ग़ज़ल से दिल को बहलाया है
सर्द मौसमों में
जब भी सूरज ठहरा है
जामिआ कैंपस के लॉन में
साथ- साथ मूंगफली और गुड़ खाया है
उसको कभी भूली नहीं मेरी दिवाली
मांग के मिठाई खाने घर आया है
ईद पर अपने घर बुलाकर
मुझ शाकाहारी के लिए
स्पेशल दस्तरखान बिछाया है
दावत से पहले मेरे लिए दुआ में
‘इंशा अल्लाह’ कहके हाथ उठाया है ”
पर हैरत कि इंतहा ये के
मेरी — उसकी यारी सुनके
इन सरदारों का गुस्सा बढ़ता है
बात बात पे
इन्होने कहर का ज़ोर
और बढ़ाया है
इन्हें बर्दाश्त नहीं वो और मैं एक इंसान बने रहें
ये चाहते हैं कि हम हिन्दू या मुस्लमान बनें रहें
इनकी जहालत पे शर्मिंदा हूँ मैं
कुछ भी नहीं हूँ मैं
मगर कभी हिन्दू तो कभी मुस्लमान हूँ मैं