लेखिका गीता हरिहरन के शब्दों में, “हल्ला बोल सफ़दर हाश्मी की छोटी मगर बेहद भरपूर ज़िंदगी का शानदार ब्यौरा देती है। इसको पढ़कर हमें पता चलता है कि शायरी और नाटक, हास्य और कोमलता, साहस और उम्मीद से भरे-पूरे राजनीतिक प्रतिरोध को जीने का क्या मतलब होता है। और सफ़दर हाश्मी इस मंच पर कहीं अकेला दिखाई नहीं देता। शायद यही उसकी ज़िंदगी – और इस किताब – की कामयाबी है। हल्ला बोल हमें बिल्कु ल पास से ये दिखाती है कि किस तरह एक मामूली आदमी की ज़िदं गी और मौत बहुत सारे लोगों की कहानियों में गुंथी होती है। वे सब मिलकर विचारधारा और ज़िंदगी के संघर्ष को आपस में जोड़ने वाली एक गहरी कड़ी को सामने लाती हैं। यह एक ऐसी किताब है जिसकी आज हमें दरकार है, ताकि हम प्रतिरोध की अपनी समझ को फिर से तराश सकें और उसे अमल में लाने की ताक़त जुटा सकें।’
निम्लिखित है सुधन्वा देशपांडे की पहली किताब हल्ला बोल: सफ़दर हाश्मी की मौत और ज़िंदगी के कुछ अंश:
उन्नीस सौ अठासी की आख़िरी शाम। कुछ ही घंटों में नया साल शुरू होने जा रहा था। हम घनी हरियाली के बीच एक ऊंचे टीले पर नए साल की महफ़िल सजाए बैठे थे। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था मगर उसकी फ़िक्र भला कौन करता। हंसते-गाते, पीते, हम चाहते थे कि ये दिलकश रात कभी ख़त्म न हो ।
उन्नीस सौ नवासी की पहली शाम। हम झंड बनाए बैठे थे। एक सरकारी अस्पताल के सूने गलियारे में। ना गुस्सा महसूस होता था, ना शोक। अस्पताल की दीवारें बर्फ़ की सिल्लियां लगती थीं। हम सृन्न बैठे थे, सुबह के ख़ौफ़ में ।
समय रुका हुआ था। घड़ी का एक कांटा लोहे का सरिया था, दूसरा बंदूक की नली |
मेरा दिल पत्थर था। उस जनवरी के पहले तीन दिन मैं एक मूर्छा में रहा। फिर भी मुझे उन दिनों का एक-एक लम्हा उसी तरह याद है जैसे दर्जनों बार देखी गई फ़िल्म | बिल्कुल साफ़, वक़्त की धुल से आज़ाद। रंग सच्चे, आवाज़ करारी। मैं अपनी यादों के वीडियो प्लेयर पर उसे स्लो मोशन में देख सकता हूं। मगर यह फ़िल्म है, ज़िंदगी नहीं।
मैं कुछ हक़ीक़त में लौटा चौथे दिन। जब हम वापस झैंडापुर गए। उस दिन हमने झंडापुर में फिर से हल्ला बोल का मंचन किया | वही नाटक जो तीन दिन पहले हम पर हुए हमले के कारण अधूरा छुट गया था। उसी जगह, जहां हम पर हमला हुआ था। उस हमले ने दो लोगों की जान ली थी। एक कलाकार के सिर पर लाठियों से बेरहम वार किए गए थे। एक मज़दूर की जवान ज़िंदगी बेवजह एक वहशी बंदुक की गोली ने बुझा दी थी।
थियेटर एक सपना है; थियेटर हक़ीक़त है। यह क्षणिक है, हर पल बदलता है, अनित्य है; धुंए का एक छल्ला है। और यह स्पर्शनीय है, सजीव है, इसमें खुशबू है, खटास है; गेहूं की बाली है।
कभी-कभी उसमें ख़ून की बू भी आती है। ख़ून, जो जाड़ों के इतवार की एक चटक सुबह एक मज़दूर बस्ती के खड़ंजे पर फैल जाता है।
यह मौत की कहानी नहीं है। यह ज़िंदगी की कहानी है।
एक सादालौह इंसान की दमकती, हसीन ज़िंदगी की कहानी, जितनी साधारण, उतनी ही असाधारण। सफ़दर हाश्मी की कहानी।
[…]
प्रत्येक राजनीतिक हत्या एक सार्वजनिक नज़ारा होती है, लोगों में डर और दहशत पैदा करने के लिए। सवाल ये उठता है कि इस नज़ारे का दर्शक कौन है? दाभोलकर और उनके जैसे दूसरे शहीदों के मामलों में और एम. एफ़. हुसैन जैसे लोगों, जिन पर दूसरे तरीक़ों से हमले किए गए, के मामले में, पूरा देश अपेक्षित दर्शकों में था। ये हमले इस तरह से अंजाम दिए गए ताकि मीडिया का ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान इस तरफ़ खींचा जा सके । इनके ज़रिए हत्यारे अपने विकृत दृष्टिकोण की तरफ़ लोगों का ध्यान खींच सकें। साथ ही हमलावर भी ख़ुद को नायक की तरह पेश कर सकें | मालविका माहेश्वरी ने इस बात को अपने अध्ययन में बख़्बी दिखाया है। कई बार तो हमलावर हमला करने से पहले ही मीडिया को ख़बर दे देते हैं और उन्हें तबाही के उस मंज़र को रिकॉर्ड करने के लिए बुलाते हैं। सफ़दर की हत्या स्थानीय दर्शकों मै दहशत पैदा करने के लिए की गई थी। उनके लिए राम बहादुर एक कोलैटरल डैमेज से ज़्यादा नहीं था। उनके लिए उसकी कोई अहमियत नहीं थी। हत्यारे बहुत देर तक बस्ती में आतंक फैलाते रहे । हवा में गोलियां चलाते रहे, गंदी- गंदी गालियां देते रहे, दहशत का एक भौंडा नाच नाचते रहे।
सफ़दर की हत्या सुनियोजित हत्या (एसेसिनेशन) नहीं थी। ऐसा नहीं था कि हत्यारे ख़ास सफ़दर को ही मारने आए थे। उसकी ह॒त्या एक राजनीतिक हत्या थी। मुकेश शर्मा और उसके भाड़े के गुंडे कोई शैतानी जीनियस नहीं थे, वे सिर्फ़ चवन्नी छाप गुंडे थे, ज़मीनों पर क़ब्ज़े, वसूली, कालाबाज़ारी जैसे गैरक़ानूनी धरातल पर पनप रही अपनी ट्च्ची गैरक़ानूनी रियासत को बचाने में लगे हुए थे। दहशत उनका सबसे बड़ा सिक्का था। इसीलिए वे बंदुर्के, लाठियां, और सरिए लाए थे। उनका निशाना सफ़दर नहीं था, उनका निशान था मज़दूरों का आंदोलन जो उनकी गैरक़ानूनी रियासत के लिए चुनौती था।
यह वर्ग संघर्ष था। सफ़दर को इसलिए मारा गया क्योंकि उसने इस वर्ग संघर्ष में अपने आपको अपने कॉमरेड्स और हत्यारों के बीच खड़ा कर दिया। उसने अपने आप को ख़तरे में डाल दिया ताकि दूसरों की ज़िंदगी बच सके। अगर जनम की परफ़ॉर्मेंस तय समय के हिसाब से यानी एक घंटा पहले शुरू हो जाती तो शायद हम उनके हाथ नहीं आते। कौन कह सकता है! मगर मज़दुर वर्ग के आंदोलन पर हमला तब भी होता, किसी और समय, किसी और जगह पर, किसी और को शिकार बनाता। सफ़दर की बहादुरी ने कई ज़िंदगियों को बचाया।
इस हमले और सफ़दर की मृत्यु की ख़बर जितनी तेज़ी से चारों तरफ़ फैली, वो हैरतअंगेज़ बात थी। ये वो ज़माना था जब मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट जैसी कोई चीज़ नहीं होती थी, इनका हमने नाम भी नहीं सुना था। उस समय मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सदमे में न मैं शोक मना सकता था और न अपनी क्षणिक अल्पाकारी शोहरत से ख़ुश या भयभीत हो सकता था। देश भर में विरोध हो रहे थे। शहरों, गांवों और क़स्बों से इस हत्या के ख़िलाफ़ विरोध की ख़बरें आ रही थीं।
इसका एक कारण ये भी था कि सफ़दर के निजी स॑पर्कों और दोस्तियों का दायरा बहुत बड़ा था जो उसने कमोबेश अनायास मगर समय देकर खड़ा किया था। एक ऐसी कोशिश जिसमें उसे किसी नतीजे की उम्मीद नहीं थी और निजी फ़ायदे का तो कोई सवाल ही नहीं था | सफ़दर एक कुदरती ऑर्गेनाइज़र था। वह नेटवर्कर नहीं था, ऑर्गेनाइज़र था।
एक अलग स्तर पर यह गुस्सा पिछले एक-डेढ़ दशक के दौरान लगातार जज़्ब होते जा रहे असंतोष का भी परिणाम था। निश्चय ही यह असंतोष आर्थिक मुद्दों पर भी था मगर पहचान पर आधारित घृणा की विचारधारा के हाथों सामाजिक ताने-बाने के लगातार ट्टते जाने की वजह से भी लोगों में गुस्सा पनप रहा था | फिर सफ़दर एक कम्युनिस्ट था और उसकी पार्टी माकपा और उसके जनसंगठन सीट, एडवा, और एसएफ़आई सफ़दर की ज़िंदगी और बलिदान के संदेश को लाखों लोगों तक ले जाने में क़ामयाब रहे । अंत में, इस विरोध का दायरा और दर्जा एक सदमे से भी पैदा हुआ था| सदमा इस बात को लेकर कि भला किसी व्यक्ति को सिर्फ़ नाटक करने की बिना पर मारा कैसे जा सकता है? इस अर्थ में ये हमारे गणतंत्र के इतिहास में एक नया मोड़ था। ये ऐसा वक़्त था जब हम सड़क पर किसी कलाकार की ह॒त्या से दुहल उठे थे। और आज हम एक ऐसे मुक़़ाम पर हैं जहां हमारी इंसानियत की धमनियां पथरा गई हैं, महिलाओं के बलात्कार और ग़रीब दलितों या मुसलमानों की लिंचिंग पर भी बहुत सारे लोगों की रगों में कोई जुबिश नहीं होती।
मगर सफ़दर की ज़िंदगी और उसकी मौत हमें दिखाती है कि एक और तरह का आक्रोश संभव है। सफ़दर के नाम और उसकी स्मृति को वैसी ऐतिहासिक पहचान नहीं मिलती अगर इतने सारे कलाकार सहमत के बैनर तले इकट्ठा न होते और सहमत ने भारतीय समाज की बढ़ती बर्बरता पर प्रतिक्रिया देने के रचनात्मक तरीक़े ना ढूंढे होते | सफ़दर नायकों के रास्ते पर चलते हुए शहीदु हुआ और उसका नायकत्व उन हज़ारों कलाकारों और बुद्धिजीवियों की रचनात्मकता से एक अलग शिखर पर पहुंचा था जो कट्टर धार्मिक दक्षिणपंथ के जवाब में एक सेक्यूलर प्रति वृत्तांत रचने के लिए सफ़दर के नाम पर जुटे थे।
सफ़दर की ज़िंदगी हमें इस बात का अहसास कराती है कि एक कलाकार इस दुनिया में एक अस्मितावादी उद्देश्य से चिपके बिना भी जी सकता है। वह अपने भीतर पहचानों से परे मानव मुक्ति के सपने का अथक वाहक बन सकता है। मुक्ति का एक ऐसा भव्य और निस्सीम स्वप्न जिसमें हमारी धरती पर बसने वाले सारे जीवों के लिए जगह हो।
अकबर राजा लाजवाब था, समझ में उसकी आई
या तो दुनिया सबकी है या नहीं किसी की भाई