तुम मेरे मरद नहीं हो सकते
मेरे आदमी नहीं हो तुम
मेरे आंसू नहीं ढलकते हैं तुम्हारे गालों पर
दर्द मोती बन जब झरता है मेरी सपनीली
आंखों से
तुम्हें याद आती है अपनी मां
और
तुम अपने पिता का कवच ओढ़ लेते हो
तुम्हारे चेहरे पर छा जाती है उपहास की तिरछी मुस्कान
पिता बोलते हैं
तुम्हारे छिद्रों से
औरतें इसी मिट्टी की बनी हैं
सदियों से ही, उनकी आंखों में सजा है दुख
बात-बात पर छलकना दस्तूर है
उनका कुछ नहीं हो सकता
यह कहकर
तुम अपनी विद्रोही मां की
छाती को दबाते हो पैर से
और
दुनिया को जस का तस चलाने वाले
पिता के निर्गुण भजन का
मंजीरा बजाते हो
आंखे बंद कर
जीत पर भीतर ही भीतर मुस्कुराते
तुम मेरे मरद नहीं हो सकते
मेरे आदमी नहीं हो तुम
जिस आग में जल रही हूं
मैं
शामो-सहर
वह तुम्हें छूती भी नहीं
मेरा ज्वालामुखी मेरा लावा
सब बस मेरा ही रहता है
तुम एक तमाशबीन की तरह
दूर खड़े फूंकते हो सिगरेट
उडाते हो धुएं के छल्ले
और मूंछों पर देते ताव
बखान करते हो अपने पिता की फकीरी का
कैसे तमाम हंगामे के बीच
निर्विकार
हो जाते थे
वह
परमात्मा की दुनिया में लीन
मां रगड़ी रहती थी
अपना बदन चट्टान से
लहूलूहान होने तक
फिर तुम्हारा मुंह देख वापस आ जाती थी
भट्टी में
गृहस्थी की
नम लकड़ियों को
दिल में सुलगती ज्वाला से
जलाती थीं
क्रोध पर पानी डाल
देती थी बघार—हींग और लाल मिर्च का
सब छींकते हुए कोसते थे उसे
यूं उफनते लावे की निकासी का रास्ता बनाने की
करती थीं वह कोशिश
वरना खाने में ये स्वाद न उतरता
उसका ये हुनर लाजवाब था
तभी तो कभी भी नहीं घुसी थाली में
धुसियाई हुई सुलगी लकड़ी की बू
हां,
उसकी वेदना उतरी नहीं
कविता में
दीवार में काली लकड़ियों से उतारा था
उसने
अपना रुदन
अपना गुस्सा
बार-बार तोड़ना चाहती थी
वह
इस पिंजरे को
ये नहीं कह सकते तुम
कि उसने कोशिश नहीं की इसकी
वह बंधन तोड़ भाग गई थी
उस घने जंगल में
जहां पेड़ों से छनकर आती धूप
सहलाती थी उसकी रूह
छप्प-छप्प पानी में खिलता था चांद
वह कुंती तो थी नहीं
कि सूरज से सहवास के बाद
कर्ण को बहा देती नदी में
तुम्हें जन्म देने के लिए ही
ठोस-सूखी जमीन
की तलाश में
वापस लौटी
गुलामी में ।
इसकी चुभन अभी भी
दफन है उसके दिल में
कभी टटोलना उस जमीन को
जहां दफनाया है
तुमने उसे
कैकटस के नन्हे पौधे
तुम्हें भी चुभेंगे
तुम्हारे हाथ भी तो
तुम्हारी मां की तरह ही
मुलायम है…
पिता को दीखता न था
और
देखना उनके लिए
जरूरी भी न था
गोया कि देखने का काम तो
कान भी करते हैं
लेकिन यहां तो दोनों ही थे नकार में।
वैसे. मां की छटपटाहट के
तुम तो गवाह थे
दीवार की तस्वीरें
तुम्हारे चेहरे पर चस्पां कर गई मां
लेकिन…
पूरे समय तुम पकड़े रहे
मां का पल्लू
पर
थामे रहे
पिता का हाथ
गुनगुनाते रहे उनका गीत
जो मां के जले में नमक की तरह तिलमिलाता था….
तुम
हां
तुम
नहीं हो सकते मेरे मरद
तुम अपनी विद्रोही मां की
छाती को दबाते हो पैर से
तुम्हारे गालों पर नहीं ढलके
मां के आंसू
वक्त मांगता है हिसाब
बाड़े तोड़ भागी मां
तुम्हारे सामने खड़ी है
गुलामी की और वापसी
के सारे पुलों को ध्वस्त करती
कुंती-कर्ण की दीमक भरी नजीरों
को मटियामेट करती
ऐलान कर रही है–
तुम अपनी मां की नहीं
अपनी बाप की
बस बाप की
हो औलाद