हैदराबाद में हुए नृशंस बलात्कार और पीड़िता को जिंदा जलाने के चार आरोपियों को हैदराबाद पुलिस द्वारा `एनकाउंटर’ जिसे फर्जी कहने में मुझे जरा भी शक नहीं है। इस पर जबर्दस्त वाहवाही का दौर चल रहा है। सोशल मीडिया-ट्वीटर से लेकर सांसद-मंत्री-नेता सब हैदराबाद पुलिस के रास्ते के ही अनुसरण करने की बात कह रहे हैं। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि पीड़िता को न्याय मिल गया और उसके परिजन खुश हैं। यह न्याय नहीं भीड़तंत्र की जीत है।
यह बलात्कार विरोधी या बलात्कार को समाज से खत्म करने की मानसिकता नहीं, बल्कि मैगी बनाने की तर्ज पर तुंरत न्याय का एहसास कराकर मामले को खत्म करने की ख़तरनाक मानसिकता है। ऐसा करके समय पर कार्रवाई न करने वाली, पीड़िता को बचाने के लिए तुंरत सड़क पर उतरने से इनकार करने और पीड़िता के किसी के साथ भाग जाने की थ्योरी परिजनों से बोलने वाली दोषी पुलिस को हीरो बनाने की पूरी कवायद सफलतापूर्वक कर ली गई। सामूहिक भावना-सामूहिक चेतना के नाम पर देश के संविधान-कानून व्यवस्था को तिलांजलि देने वाला कदम है।
कितनी हैरानी की बात है कि जब देश की संसद में सांसद जया बच्चन बलात्कारियों की लिचिंग किए जाने की बात करती हैं और कुछ ही दिन बाद पुलिस रात के 3 बजे चारों आरोपियों (निहत्थे) को घटना स्थल पर ले जाती है, उनके हाथ बंधे हैं, आंखों पर पट्टी है और वे भागने की कोशिश करते हैं। पुलिस उन्हें मार डालती है। पुलिस की ये थ्योरी किसी को भी हजम नहीं हो सकती। जो लोग इसके पक्ष में बोल रहे हैं, वे भी यही बता रहे हैं कि ऐसा ही होना चाहिए—यही न्याय है।
यानी वे मान रहे हैं कि ये एनकाउंटर नहीं है, इन आरोपियों को यूं ही मारा जाना चाहिए। भाजपा सांसद राजवर्धन राठौर ने हैदराबाद पुलिस और तेलंगाना सरकार को इस पर बधाई दी कि ऐसा ही होना चाहिए। बसपा प्रमुख मायावती ने समर्थन करके कहा यूपी पुलिस को इससे सीखना चाहिए। ये तो बड़े पैमाने पर इस पर सहमति बनाने की कोशिश हो रही है वह बलात्कारी संस्कृति-बलात्कारी विचारधारा या बलात्कारी सिस्टम से लड़ने के बजाय तुरंत न्याय मिलने-दिए जाने की कबिलाई मानसिकता का परिचायक है।
इन आवाज़ों को सुनना ज़रूरी
इस एनकाउंटर के खिलाफ जो लोग बोल रहे हैं, उनकी बातों को ध्यान से सुनना बेहद जरूरी है। इसमें दो महिला वकील हैं, जो लंबे समय से महिला हिंसा के खिलाफ कानून जंग लड़ रही हैं- रैबिका मेनन जॉन और वृंदा ग्रोवर। वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने साफ-साफ कहा—इस तरह से एनकाउंटर महिला के नाम पर, इंसाफ के नाम पर पुलिस नहीं कर सकती। एनकाउंटर करने वाले पुलिस वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज होनी चाहिए। वृंदा ग्रोवर का कहना है कि किसी भी पीड़िता को न्याय तभी मिल सकता है जब कानून का कड़ाई से पालन हो और इसकी राह में अड़चन डालने वालों का गिरेबान पकड़ा जाए।
इसी तरह से वरिष्ठ अधिवक्ता रैबिका मेनन जॉन ने बहुत ही तल्ख स्वर में कहा, कितनी आसानी से भीड़ के न्याय का जश्न मना रहे हैं। रात के अंधेरे में पुलिस ने चार इंसानों को मार दिया, क्योंकि वे मामूली थे, क्या महरानीबाग और जोरबाग के किसी व्यक्ति के साथ भी पुलिस ऐसा करती—नहीं। ऐसी पुलिस ने जिस पर कोई विश्वास नहीं करता। वह पूछती हैं कि क्या चारों के खिलाफ अपराध साबित हो गया था, क्या प्रमाण थे, क्या अदालत ने उन्हें दोषी करार दिया था। अगर दोषी थे भी तो एक कानून व्यवस्था है, जिसे लागू करना हम सबका दायित्व है।पीयूसीएल की कविता श्रीवास्तव का साफ मानना है कि यह सुनियोजित हत्या है और इस पर पुलिस वालों के खिलाफ मामला दर्ज होना चाहिए। वह लोगों से यह भी अपील करती हैं कि इस फर्जी एनकाउंटर में लिप्त पुलिसवालों का स्तुति गान न किया जाए।
यहां यह बताना जरूरी कि ये हैदराबाद में साइबराबाद के पुलिस कमीश्नर वीसी सज्जनार, जिन्होंने इस ऑपरेशन को लीड किया, उन पर 2008 में वारंगल में इसी तरह का एनकाउंटर करने का आरोप लगा था।
कानूनविद् कल्पना कन्नाबिरान का कहना है कि यह खून-हत्या-लिंचिंग-एनकाउंटर की मांग महिलाओं के खिलाफ है। यह एक पितृसत्तात्मक सोच है, मर्दवादी मानसिकता—जहां एक पुलिसवाला एनकाउंटर करके हीरो बनता है। जिस देश में नित्यानंद जैसे बलात्कार के आरोपी आजाद घूम रहे हों, भाजपा विधायक (पूर्व) कुलदीप सेंगर पीड़िता को परिवार सहित खत्म करने की साजिश कर रहा हो, वहां ये कैसे न्याय हो सकता है। हम औरतों को इसका विरोध करना होगा, वरना बलात्कार पीड़िता को कभी न्याय नहीं मिल पायेगा।
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (एपवा) ने भी बयान जारी करके कहा है कि हमारे नाम पर हिरासत में हत्याएं मंजूर नहीं है। बयान में कहा गया है कि हमें अब बताया जाएगा कि न्याय हो गया है, पीड़िता का बदला ले लिया गया है और सब कुछ वापस सामान्य बताने की कोशिश होगी। लेकिन यह गलत है, फर्जी है। हत्या को न्याय बताकर महिलाओं को सुरक्षित नहीं किया जा सकता।
इस तरह से जो लोग अभी तक सड़कों पर महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहीं, बलात्कार के खिलाफ जिन्होंने निर्णायक लड़ाइयां लड़ीं, जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों में अहम भूमिका निभाई—वे सब एक सिरे से इन हत्याओं को न्याय नहीं मान रहीं है। ये जो आवाज़ें उठ रही हैं, जो एनकाउंटर के जश्न के बीच अहम सवाल उठा रही हैं, इन्हें दूर तक पहुंचाना बेहद जरूरी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)