वे एक बात बहुत ही क्रूड यानी अशिष्ट या भोंडे तरीके से भारतीय मतदाताओं के दिमाग में बैठा देना चाहते हैं कि वोट किसी को भी दो, सरकार भाजपा ही बनाएगी। चाहे उसे दो सीट मिलें या 105 सरकार तो भाजपा की ही बनेगी। ऐसा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी दूरगामी रणनीति के तहत कर रही है। भारतीय लोकतंत्र को विकल्पहीन स्थिति में तकरीबन वे पहुंचाने के अपने मिशन में कामयाब से दीखते हैं। इसका अगला चरण यही है कि सिर्फ एक ही पार्टी और एक ही विचारधारा में भारत पर शासन करने का माद्दा है। देश के अच्छे खासे तबके को, खासतौर से संपन्न, खाये-पिये मध्यम वर्ग को विचार के स्तर पर वे यहां ले आए हैं।
थोड़ा बारीकी से देखने पर नजर आएगा कि इस सोच ने गहरी पैठ बना ली है। वर्ष 2014 के बाद से जिस तरह से राष्ट्र बनाम मोदी को नारों-विज्ञापनों के इर्द-गिर्द बुना गया, वह आज 2019 में `मोदी है तो मुमकिन है’ तक पहुंच गया है। महाराष्ट्र में जिस तरह से कानून-संविधान-पंरपराओं की धज्जियां उड़ाकर भाजपा ने देवेंद्र फणनवीस को मुख्यमंत्री बनाया और उसके बाद फणनवीस का ट्वीट करके यह कहना—मोदी है तो मुमकिन है—सारी चीजों को बिल्कुल साफ कर देता है। मोदी है तो मुमकिन है का यही अभिप्राय है, जो शासन में बैठी भाजपा नीचे तक पहुंचाना चाहती है। जिस तरह से वे देश चला रहे हैं और आगे भी चलाना चाहते हैं—उसके लिए उन्हें न तो देश के संविधान की जरूरत है और न ही नियम-कानून या लोकतांत्रिक शासन से जुड़ी बुनियादी परंपराओं की।
ऐसा सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में हो रहा हो, ऐसा नहीं है। इसकी सबसे बर्बर शुरुआत अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में हुई। अपने चहेते उद्योगपति अंबानी औऱ अडानी के लिए पूरे देश की संपदा को लूटने की खुली छूट दी गई। सरकार उनकी ही है तो फिर चाहे वह अंबानी की जियो यूनिर्वसिटी को जन्म से पहले ही एक्सीलेंस टैग देने की बाद हो या फिर अडानी की बिजनेस डील में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की अरुंधति भट्टाचार्य़ को बतौर गारेंटर ले जाने की बात हो—सारा खेल खुल्लमखुल्ला चला। वर्ष 2014 के बाद से लेकर अब तक इस तरह की मिलीभगत-सांठगांठ, घोटालों के हजारों बड़े मामले हुए, जिनमें साफ-साफ नियम-कायदे-कानून की खुलेआम अवहेलना की गई, लेकिन ये एक बड़े मुद्दे नहीं बने।
विकास और विकास के ढोल में इसे ही –नए भारत—के लिए नए ऑडर ऑफ द डे के तौर पर स्थापित करने की सारी जुगत बैठाई गई। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि ये सारी डील सीधे-सीधे प्रधानमंत्री के स्तर पर हुईं। फ्रांस से रफ़ाल लड़ाकू विमान खरीदने में भी रक्षा मंत्री नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कमान संभाली हुई थी। दिवालिया होने के कगार पर खड़े उद्योगपति अंनिल अंबानी को इस डील में जैसे हिस्सेदार बनाया गया, उसने सत्ता के वरदहस्त में दिन-दूनी रात चौगनी बढ़त हासिल करने वाले क्रोनी पूंजीवाद का जीता-जागता नमूना पेश किया।
8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के पीछे भी सोच यही थी कि सारी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर हरेक के खाते की कमान हुक्मरान के पास आ जाए। छोटे-लघु-सीमांत उद्योगों की तबाही हो गई, लाखों-लाख लोग बेरोजगार हो गए और अभी भी अर्थव्यवस्था भीषण मंदी में गोते लगा रही है। संगठित क्षेत्र के आंकड़े आना पहले शुरू हो गये। ऑटोमोबाइल उद्योग सहित मैन्यूफैक्चरिंग, सर्विस समेत तमाम क्षेत्रों में गिरावट आई, विकास दर नकारात्मक गई। छंटनियां-बेरोजगारी इतनी बढीं की दशकों का रिकॉर्ड टूट गया, लेकिन ‘अच्छे दिन’ बने रहे! कुछ लोगों के अच्छे दिन देश के लिए बुरे दिन साबित हो रहे थे, लेकिन फील गुड का प्रचार वैसे ही चलता रहा। यह तो रही आम नागरिकों की कहानी। इसका असर देश की राजनीतिक पार्टियों की माली हालत पर भी तो सीधा पड़ा। भाजपा सबसे अमीर पार्टी के रूप में स्थापित हुई।
देश की तमाम दूसरी पार्टियों के गरीब होने और भाजपा की संपदा में बेहिसाब इजाफा होने में सीधा संबंध है। यहां हम गृहमंत्री अमित शाह के बेटे जयशाह की बात नहीं कर रहे है, जिनकी कंपनी टेमपल इंटरप्राइज प्राइवेट लिमिटेड का टर्नओवर मोदी सरकार के पहली बार सत्ता में आने के एक साल के भीतर करीब 15,000 प्रतिशत बढ़ गया था। निश्चित तौर पर यह कहने की किसी को भी जरूरत नहीं कि ये हुनर उन्हें अपने तड़ीपार पिता से मिला। और, न ही हम यहां इन्हीं जयशाह के भारतीय क्रिक्रेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के सचिव बनने के बाद बिना कोई ट्वीट किये और महज 27 फोलोवर्स के साथ उनके ट्वीटर हैंडिल ब्लू टिक यानी ट्वीटर के वैरिफिकेशन मिलने की बात कर रहे है। यहां भाजपा का जिक्र हो रहा है।
भाजपा ने 2016-17 में चुनाव आयोग के पास अपनी आय 1,034.27 करोड़ रुपये घोषित की थी, जो पिछली घोषणा से 463.41 करोड़ रुपये अधिक है। चुनावी सुधारों पर काम करने वाली संस्था –एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) ने आंकलन करके बताया की भाजपा की आय में 2015-16 से लेकर 2016-17 के बीच 81.18 फीसदी वृद्धि दर्ज की गई है। इसके बाद से तो भाजपा की क्रय शक्ति में जो इजाफा हुआ वह सबके सामने है।
इलेक्टोरल बॉन्ड ने चुनावी चंदे, चुनावी खर्चे के सारे समीकरण ही पलट दिये। जो खुलासे इलेक्टोरल बॉन्ड के बारे में हुए हैं, उससे एक बात साफ हुई हैं कि इन्हें पूरी बेहियाई से, सारे कानूनों को तिलांजलि देकर भाजपा को फायदा पहुंचाने के इस्तेमाल किया गया। इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और चुनाव आयोग की गंभीर आपत्तियां थीं लेकिन उन्हें नजरंदाज करते हुए सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय ने दबाव डालकर इन्हें चालू करवाया था। इस बारे में संसद में भी मोदी सरकार ने झूठ बोला। इनका इस्तेमाल चुनावों से पहले, नियमों में फेरबदलकर इस तरह से किया गया जिससे इनका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को मिल सके। इस सबसे बड़े घोटाले की और परतें खुलेंगी, लेकिन उससे यह साफ हो गई है कि चुनाव और लोकतंत्र पर भाजपा की शिकंजा पूरी तरह से काबिज है।
देश के नागरिकों की क्रय शक्ति (खरीदने की क्षमता) भले ही चिंताजनक ढंग से गिर रही है, लेकिन भाजपा की क्रय शक्ति में दिन-दूनी रात चौगनी की रफ्तार से इज़ाफ़ा हो रहा है। देश भर में नज़ीरे फैली हुई हैं। सिक्कम विधानसभा में जहां भाजपा का खाता ही नहीं खुला था, वहां 10 विधायक उसमें शामिल होते हैं और वह विपक्षी दल बन जाती है। मणिपुर में बस दो सीटों को हासिल करने के बावजूद जोड़-तोड, खरीद-फरोख्त कर सरकार बना ली। गोवा में कांग्रेस से कम सीटें होने के बावजूद महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी को तोड़कर उसके तीन विधायकों में दो को भाजपा में शामिल करा लिया। ये सारा खेल भी रातों-रात किया गया था। फिर लंबे समय तक कर्नाटक में जनता दल सेक्यूलर और कांग्रेस की सरकार को गिराने की तमाम कोशिशों को आखिरकार अंजाम दे दिया गया।
इस दौरान भी भाजपा द्वारा विधायकों को खरीदने का सारा कांड सामने आया, फोन रिकॉर्डिंग सामने आई। रिश्वत देने का आरोपी और भीषण भ्रष्टाचार का प्रतीक बने येदुरप्पा दोबारा भाजपा के मुख्यमंत्री बने। हरियाणा चुनाव में डील बिल्कुल खुली हुई। इधर दुष्यंत चौटाला ने अपनी जेजेपी का समर्थन खट्टर सरकार को बनाने के लिए दिया, उधर तुरंत उनके जेल में बंद पिता अजय सिंह चौटाला फरलो पर छूट जाते हैं। बिल्कुल फिल्मी शॉट की तरह—इधर डिलीवरी हुई और उधर रिहाई। वैसे मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य फिल्मी कल्पनाशीलता, ड्रामें, डील्स और क्लाइमेक्स में बॉलीवुड क्या हॉलीवुड को मात दे रहा है।
भाजपा का नया भारत यही है। जहां उसके अलावा कोई औऱ विचारधारा न हो। चुनावों में आप किसी को भी वोट दें, सरकार वही बनाए। इसके लिए खुलेआम खरीद-फरोख्त हो, बोलियां लगें, डील हो। बाकी पार्टियां अपने-अपने विधायकों को ऐसे बचा-बचाकर छिपते फिरे, जैसे भेड़-बकरियों को जंगल में शिकारियों से बचाया जाता है। यह नया लोकतंत्र है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस। इसे ही वह भारत के अधिकांश नागरिकों को उनके आगामी भविष्य के तौर पर स्वीकार् करने के लिए तैयार किया जा रहा है। भारतीय लोकतंत्र के लिए ही नहीं देश के लिए इसका काट करना सबसे बड़ी चुनौती है।
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