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निक्करधारी आरएसएस और भारतीय संस्कृति

byICF Team
August 19, 2019
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निक्करधारी आरएसएस और भारतीय संस्कृति

लेखक चंचल चौहान का एक विद्यार्थी ग़रीब दास, दलित समाज से आता है। वे बताते हैं कि गरीब दास अपनी कक्षा के प्रतिभावान छात्रों में से एक रहा है और अब साहित्य और संस्कृति के रिश्ते को ले कर शोध कर रहा है। वह अपने शोध के विषय में ही नहीं, बल्कि उससे जुड़े विविध पहलुओं की जानकारी भी हासिल करना चाहता है। वह अक्सर चंचल चौहान के पास आता है और बहुत से सवाल करके अपनी जानकारियां बढ़ाने की कोशिश करता है। ऐसी ही एक बात-चीत चंचल चौहान नेन्यूज़क्लिक के साथ साझा की। हमने इस बातचीत को तीन हिस्सों में बाँट दिया है। आपके बीच हम पहला हिस्सा साझा कर रहे हैं।

ग़रीब दास : सर, आर एस एस के लोगों को अक्सर टी वी पर और अख़बारों की ख़बरों में छपे बयानों में भी ‘भारतीय संस्कृति’, ’भारतीय संस्कृति’ कहते हुए हमने सुना है, मगर वे यह कभी नहीं बताते कि भारतीय संस्कृति क्या है, आप इस के बारे में क्या सोचते हैं ?

चंचल चौहान: चूंकि तुमने सीधे-सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हवाले से सवाल पूछा है तो इस संघ के बारे में ही पहले बात कर ली जाये! आज सबको यह बताना हमारा सामाजिक कर्तव्य है कि इस संगठन की असलियत क्या है। यह संगठन अपने बारे में जो कुछ  बताता है वह सब झूठ पर आधारित है। कबीर ने अपने ज़माने में ब्राह्मणवाद को ले कर कहा था कि ‘पंडित वाद वदै सो झूठा’। यही बात हम आज के ज़माने में ब्राह्मणवाद के हिमायती आर एस एस के बारे में कह सकते हैं।

यह संघ अपने जन्मकाल से ही अंग्रेज़ों का भक्त रहा है, इस संघ ने कहीं भी उन दिनों ‘भारत माता की जय’ या ‘वंदे मातरम्’ का नारा नहीं लगाया, राष्ट्र की मुक्ति के लिए कोई जुलूस नहीं निकाला, न ही कोई आंदोलन कभी छेड़ा, किसी ने कारावास या काले पानी का दंड नहीं झेला और न हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर कोई आर एस एस का नेता झूला। मगर आज अपने को सबसे ज़्यादा ‘राष्ट्रीय’ कहता फिरता है। आज तो यह संघ अपनी शर्म मिटाने के लिए रात दिन सब को ‘राष्ट्रभक्ति’ पढ़ाने और अपने मन मुताबिक बहुत से प्रतीकों को मनवाने की हिंसात्मक कोशिशों पर उतर आया है जब कि हम सब जानते हैं कि आर एस एस की आज़ादी की जंग में कोई आंदोलनात्मक शिरकत नहीं थी।

जब देश की आज़ादी के लिए भारत के सभी लोग अपने-अपने धर्म, जाति, समुदाय और क्षेत्रीयता भुला कर कौमी एकता की डोर में धीरे-धीरे बंध रहे थे, उन दिनों भारतीयों में फूट पैदा करना ही इसकी कारगुज़ारी थी जो ब्रिटिश सामराजियों के पक्ष में जाती थी। आज भी यह अंग्रेज़ शासकों की नीति यानी आम भारतीयों में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ही अपनाये हुए है। इस नज़र से यह एक देश विरोधी, भारतीय संविधान विरोधी और जन विरोधी संगठन है। इसकी ब्रिटिश वफ़ादारी की रिपोर्टें अब तो जगज़ाहिर हैं। इसलिए इसका चरित्र राष्ट्रीय न हो कर हमेशा से राष्ट्रविरोधी रहा है। इसकी विचारधारा भी भारतीय नहीं है। इसका सबूत संघ के गुरु गोलवलकर की 1930 में लिखी एक अंग्रेज़ी किताब, ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ (We or our Nationhood Defined) में मौजूद है। यह किताब पढ़े लिखे लोग, हमारे विद्यार्थी और नौजवान तो अब इंटरनेट और अपने आधुनिक मोबाइल पर भी यहाँ  देख सकते हैं।

गोलवलकर ने इस किताब के पृष्ठ 87-88 पर लिखा है

“To keep up the purity of the Race and its culture, Germany shocked the world by her purging the country of the Semitic Races—the Jews. Race pride at its highest has been manifested here. Germany has also shown how well-nigh impossible it is for Races and cultures, having differences going to the root, to be assimilated into one united whole, a good lesson for us in Hindusthan to learn and profit by.”

हिंदी में कहें तो इसमें साफ़ लिखा है कि जर्मनी के नाज़ियों ने अपनी नस्ल और संस्कृति की शुद्धता के लिए वहां जो कुछ किया, ‘वही भारत के लिए अनुकरणीय है।’ इस तरह गुरु गोलवलकर ने साफ़ तौर पर नाज़ियों को अपना गुरु घोषित किया और उन्हीं से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की है यानी हिटलर की पार्टी के विचार ही संघियों की विचारधारा हैं, यानी हिटलर ही उनका गुरु है। इस तरह भारतीय संस्कृति से आर एस एस की विचारधारा का कोई लेना देना नहीं है क्योंकि संघ के गुरु गोलवलकर इस किताब में साफ़ दर्शाते हैं कि ‘विविध नस्लों और संस्कृतियों से मिले-जुले किसी देश को राष्ट्र बनाना लगभग नामुमकिन है!’ जर्मन नाज़ियों की तरह नस्लवादी हिंसा अपनाने की सलाह गोलवलकर अपनी इस किताब में देते हैं।

इन विचारों को दुनिया भर के विद्वान लोग और इतिहासकार, महान समाजशास्त्री और प्रोफ़ेसर और भारतीय संस्कृति के सच्चे विचारक ‘फ़ासीवादी’ विचार कहते हैं। इन विचारों से दुनिया के सारे मानववादी अवाम नफ़रत करते और उन्हें न अपनाने की नेक सलाह देते हैं। जर्मनी में हिटलर ने ये ही विचार अपनाये थे जिनकी तारीफ़ संघी गुरु गोलवलकर ने की और जिनसे अपने देश में हिटलर ने अपने ही देश के बेगुनाह यहूदी नागरिकों के खून की नदियां बहा कर उस देश को तबाह कर दिया था। ये ही हिटलरशाही ख़तरनाक विचार और देश विरोधी ज़हरीले  नारे गोलवलकर के चेले चपाटे संघियों के दिमाग़ में संघ की शाखाओं में रोज़ सुबह भरे जाते हैं, जहां वे एक ऐसी ख़ाकी निक्कर वाली पोशाक में कवायद करते हुए देखे जा सकते हैं जिस पोशाक का भी भारतीय संस्कृति या वेद पुराणों में कहीं कोई हवाला नहीं मिलता, वह विदेशी फ़ासिस्टों की ड्रेस है। 

इस ड्रेस का विचार आर एस एस के ही एक और विचारक बी. एस. मुंजे, इटली के कुख्यात फ़ासिस्ट शासक मुसोलिनी के संघ से सीख कर, भारत लौटे थे जब वे 1931 में 15 मार्च से 24 मार्च तक इटली में रहे थे और मुसोलिनी से भी मिले थे, वहां के आर एस एस जैसे फ़ासिस्ट संघ की शाखाओं, उनके ट्रेनिंग संस्थान वग़ैरह देखे थे। मुसोलिनी के संघ की नक़ल पर भारत आ कर उसी तरह से उन्होंने काम करना शुरू कर दिया, उसी तरह संघ के सदस्यों को खाकी ड्रेस पहनायी और कवायद करायी। वही तौर तरीक़ा आज तक चल रहा है, इसका भारत की संस्कृति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं।  इटली यात्रा का यह सारा ब्योरा मुंजे जी की अपनी डायरी में लिखा हुआ है जिसे नेहरू म्यूज़़ियम लाइब्रेरी में कोई भी देख सकता है।

जिस ‘हिंदू राष्ट्र’ की स्थापना के लिए संघी जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं, उसका खुद भारत के महान संस्कृति निर्माताओं के विचारों से कोई लेना देना नहीं। वह विदेशी फ़ासिस्टों की तानाशाही वाली राज्य व्यवस्था की नक़ल है, भारत भूमि में उसके बीज कहीं नहीं हैं। इसलिए लोगों को उल्लू समझ कर वे हवाई ‘भारतीय संस्कृति’ का जाप ज़रूर करते हैं, पर वे खुद हमारी उस बहुरंगी और हज़ारों सालों में विकसित संस्कृति के बारे में कुछ नहीं जानते। इसीलिए सवाल पूछने पर संस्कृति के बारे में कुछ बता भी नहीं पाते। संस्कृति और इतिहास के बारे में संघी सबसे अधिक अपढ़ हैं।

ग़रीब दास : संस्कृति को आप कैसे समझते हैं?, पहले आप संस्कृति के बारे में हमें बतायें, फिर भारतीय संस्कृति के बारे में विस्तार से चर्चा करें।

चंचल चौहान: मानव समाज अपनी आदिम अवस्था से इस समय के आधुनिक समाज तक एक लंबी विकास यात्रा तय करके पहुंचा है। यह विकास उत्पादन के साधनों और उन साधनों पर स्वामित्व में तब्दील होते-होते इस मंज़िल तक होता आया है। जब उत्पादन के साधन आदिम अवस्था में थे तो उस समाज को आदिम समाज के रूप में जाना गया। जब नये उत्पादन के साधन विकसित हुए तो समाज व्यवस्था में भी तब्दीलियां आती गयीं, भूमि जब ‘संपत्ति’ बन गयी तो भूस्वामी वर्ग और दासों में समाज बंट गया। इस तरह शोषण पर आधारित समाज व्यवस्था वाला समाज बना और आगे चलकर सामंतवादी समाज बना।

उत्पादन के साधनों में वैज्ञानिक प्रगति के साथ मशीनों से उत्पादन शुरू हुआ तो पुराना सामंती समाज ध्वस्त हुआ और पूंजीपतियों ने नये उत्पादन साधनों पर कब्ज़ा कर लिया, तब पूंजीवादी व्यवस्था क़ायम हुई। उससे आगे की व्यवस्था समाजवादी समाज की, और फिर साम्यवादी समाज की होगी। इस तरह की तब्दीलियों से मानव समाज का इतिहास बनता है। यह सब दुनिया के सभी भागों में होता आया है और आज भी ये परिवर्तन हो रहे हैं। अभी कुछ ही समय पहले नेपाल जैसे छोटे देश में सामंती समाज व्यवस्था का ख़ात्मा हो गया और वहां नयी समाज व्यवस्था विकसित हो रही है। अकेला ‘हिंदू राष्ट्र’ समझा जाने वाला देश भी अब एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष समाज बनने जा रहा है।

इस तरह के परिवर्तन दुनिया के सारे देशों में मानव समाज के विकास के साथ-साथ हुए हैं, और हो रहे हैं। शोषण पर आधारित समाज व्यवस्था ख़त्म तो होगी ही। अनेक देशों में इसी वजह से देर सवेर क्रांतियां हुईं। पूंजीवादी समाज व्यवस्था क़ायम करने के लिए भी क्रांतियां हुईं, समाजवादी समाज के लिए समाजवादी क्रांति हुई तो कहीं जनता की जनवादी क्रांति। समाज व्यवस्थाएं बदलने का यह सिलसिला इसी तरह क्रांतियों के द्वारा हुआ है। भारत में भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति इसी तरह राष्ट्रीय आंदोलन के माध्यम से हुई।

जब समाज बदलता है तो इसी तरह अपने देशकाल के अनुसार हर संस्कृति में भी बदलाव आते हैं और बहुत से नये तत्वों के साथ संस्क़ति भी अपने-अपने समाज में विकसित होती रहती है। हर समाज में संस्कृति इंसान को बेहतर बनाने, उसे इंसानियत के सबक़ सिखाने और इस तरह उसे संस्कारवान मानव बनाने का औज़ार  या माध्यम रही है। उसमें वर्गीय विचारों के टकराव भी होते हैं। समाज के विकास के पिछड़े युग में संस्कृति में कुछ पिछड़े विचार और कुछ रीति-रिवाज ऐसे भी आते रहे, जिनसे आगे चल कर समाज को नुक़सान होने लगा, तो समाज सुधारक, कवि, संत, विचारक उसमें सुधार करके संस्कृति को भी मांजते रहे। जैसे गंदे बर्तन को चमकाने के लिए हम अपने घरों में उसे रगड़ने में नहीं हिचकते, उसी तरह संत, विचारक, कवि, यानी संस्कृतिकर्मी, समाज में मौजूद बुराइयों को ख़त्म करने के लिए और नये ज्ञान और तर्कसंगत विचारों को समाज में फैलाने और अंधविश्वासों को ख़त्म करने के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर देते हैं। 

इस तरह हर संस्कृति बहते पानी की तरह गंदगी दूर करती चलती है और समाज के विकास के साथ और अधिक मानवीय और तर्कसंगत ज्ञान की धारा अपने में समाहित करके आगे बढ़ती है। वह गंदे तालाब की तरह एक जगह रुकी हुई नहीं रह सकती,यदि ऐसा होगा तो वह सड़ जायेगी। इसलिए संस्कृति को मांजने का काम सारे ख़तरे उठा कर भी किया जाता है।

संस्कृति को बेहतर बनाने का काम हर समाज में हुआ है, भारतीय संस्कृति में भी आदि काल से ले कर अब तक यह होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। इस विकास को रोका नहीं जा सकता, न हिटलर या मुसोलिनी अपने समाज में रोक पाये और न आर एस एस जैसे उन्हीं के चेले चपाटे इस विकास को हमारे समाज में रोक पायेंगे। उन्होंने गांधी जी को मरवा दिया क्योंकि वे भारतीय संस्कृति के बहुमूल्य आधार यानी इसकी बहुरंगी बहुलतावादी संस्कृति के पैरोकार थे, यहां के सभी धर्मों, सभी तरह के विचारों, संतों, सूफ़ियों की वाणी के मानवीय पक्षों को अपना कर सच्चे भारतीय की तरह आचरण करते थे, उनके आश्रम में जो गीत गाये जाते थे, उनमें भारतीय संस्कृति के सबसे अधिक मानवीय सारतत्व का समावेश होता था। मसलन, नरसी मेहता का मशहूर  गीत, ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर परायी जाने रे’ उनकी प्रार्थना सभा में रोज़ गाया जाता था।

यह गीत भारतीय संस्कृति के उस आचरण का हिस्सा है जिसमें संस्कृत तक में कहा गया था, ‘परोपकाराय सतां विभूतय:’ जिसका तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में अनुवाद करते हुए लिखा था कि ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई/ परपीड़ा सम नहिं अधमाई।’ गांधी जी भारत में मौजूद सभी धर्मों की मानवतावादी वाणी का आदर करते थे और उस वाणी का पाठ उनके आश्रम में होता था। उनका यह सांस्कृतिक आचरण हिटलर की विचारधारा मानने वालों के खिलाफ़ जाता था, इसलिए देश की साझा संस्कृति के विरोधी हिटलरी संघियों ने उनकी हत्या करवा दी। संघी दिमाग़ में तो ‘परपीड़ा’ का ज़हर रोज़ घोला जाता है जिसकी वजह से उनके हाथों वे लोग मारे जाते हैं जो उनकी विचारधारा के हिसाब से ‘पराये’ हैं, जैसे भारत के ही अपने नागरिक अल्पसंख्यक मुसलमान, ईसाई, दलित, स्त्री और धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक तर्कशील विचारो के पैरोकार विद्वान लोग। ये सब संघियों के लिए दुश्मन की तरह हैं।

वे ऐसे विचारकों की आज भी हत्याएं कर रहे हैं जो सदियों से चली आ रही हमारी साझा संस्कृति को और अधिक बेहतर व मानवीय बनाने की कोशिश में लगे हैं, जो अंधविश्वासों और जात-पात, छुआछूत के विचारों की गंदगी साफ़ करके भारतीय संस्कृति को सोने की तरह चमकदार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले ही कुछ अरसे में आपने सुना होगा कि आर एस एस के लोगों ने नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम एम कलबुर्गी जैसे विद्वानों की हत्या कर दी क्योंकि वे अंधविश्वासों के खि़लाफ़ लिख और बोल रहे थे और आंदोलन चला रहे थे। पश्चिमी देशों में तो मध्ययुग में ऐसी घटनाएं हुई थीं जब संस्कृति को बेहतर बनाने वाले ज्ञानवान इंसानों के साथ इसी तरह के सलूक हुए थे। ब्रूनो नामक एक विद्वान को पादरियों ने जला दिया था क्योंकि वह कहता था कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है, सूरज पृथ्वी का नहीं। गेलीलियो को क़ैद में डाल दिया गया था क्योंकि वह बताता था कि आकाश में चमकने वाले ग्रह-नक्षत्र पृथ्वी की ही तरह भौतिक पदार्थ हैं, ईश्वरीय आभाद्वीप नहीं हैं,उसने अपनी दूरबीन से पादरियों को नक्षत्र दिखाने की कोशिश भी की, मगर वे सब वही कहते रहे जो सदियों से अज्ञानवश पादरी लोग कहते आ रहे थे। 

विज्ञान को नहीं, अज्ञान को फैलाने में ही शोषकवर्गों को फ़ायदा दिखता है। कबीर ब्राह्मणवाद के द्वारा समाज में फैलाये गये अंधविश्वासों के अंधकार में फंसे इंसानों से कहते थे कि ‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी!’गेलीलियो भी यही कह रहा था, मगर उसे जेल में डाल दिया गया। भगवान बुद्ध ने मरते समय अपने लोगों से कहा, ‘अप्पो दीपो भव’, अपने दीपक खुद बनना यानी लकीर के फ़कीर मत बनना। गुरु नानक ने ज्ञानी की परिभाषा करते हुए कहा कि ‘आपु पिछाणे ग्यानी सोइ’। कन्नड़ के एक कवि बसवन्ना बारहवीं सदी में यही कह रहे थे।

उन्हें भी मार दिया गया था। यह संस्कृति को मांजने की परंपरा है, सत्य की खोज करो, असतो मा सद गमय। कबीर भी सताये जाते थे तो कहते थे कि ‘सांच कहउ तो मारन धावहिं झूठहिं सब पतियाना’। आर एस एस के लोग हमारे यहां के तर्कसंगत ज्ञान को नहीं मानते और एक काल्पनिक इतिहास, एक काल्पनिक विज्ञान, एक काल्पनिक संस्कृति यानी झूठ और अज्ञान पर आधारित काल्पनिक ‘भारतीय संस्कृति’ का जाप करते रहते हैं जिससे लोग अज्ञान अंधकार में डूबे रहें और अज्ञान पर आधारित सदियों से चली आ रही कुछ सड़ीगली परंपराओं से लोग चिपके रहें और आगे न बढ़ें। 

आर एस एस ने ग़रीब जनता के बजाय हमेशा रजवाड़ों का पक्ष लिया। सतीप्रथा के पक्ष में उनके नेताओं ने अपनी सहमति खुले तौर पर ज़ाहिर की, दलितों के लिए आरक्षण के खिलाफ़ उनके नेतृत्व के विचार जगजाहिर हैं। इस तरह इस देश के ही वंचित शोषित नर नारियों व अल्पसंख्यकों के हित के लिए बने संवैधानिक क़ानून उन्हें मान्य नहीं। कश्मीर में राजा हरी सिंह का पक्ष ले कर कश्मीर का भारत में विलय रोकने की कोशिश आर एस एस ने खुले तौर पर की थी। इसी तरह आज़ाद भारत में जब रजवाड़ों के प्रिवी पर्स ख़त्म करने का फ़ैसला हुआ तो संघ ने रजवाड़ों का ही पक्ष लिया जो भारत की ग़रीब जनता के पैसे से ऐश करते आ रहे थे।

आज के समय में भारतीय समाज में जो देशी विदेशी पूंजीपति ग़रीबों को लूट रहे हैं, और दिनों दिन लूट से अपनी दौलत में दिन दोगुना रात चौगुना इज़ाफ़ा कर रहे हैं। बैंकों में जमा ग़रीब जनता का पैसा विजय माल्या जैसे अनेक पूंजीपति उधार ले कर डकारे ले रहे हैं, आर एस एस और उनकी सरकार इन्हीं कारपोरेट घरानों का ज़रख़रीद गुलाम बन कर देश के ग़रीबों के साथ धोखा करने पर उतारू है। उनके खिलाफ़ आम शोषित जन लामबंद न हो पायें, सही अर्थों में शोषण से मुक्ति के संघर्ष में न उतर पड़ें, इसलिए असली दुश्मन को बचाये रखने और देश के ही ग़रीब जनों के एक हिस्से को नक़ली दुश्मन के रूप में पेश करने के लिए नक़ली भारतीय संस्कृति का जाप करते रहते हैं।

पहले रजवाड़ों के, अंग्रेज़ शासकों के भक्त रहे और आज-कल ये सब बड़े कॉर्पोरेट  घरानों के स्वयंसेवक हैं, भारत के आ वाम के हितों से इनका दूर-दूर तक नाता नहीं,झूठे नारे, झूठे वादे और झूठी हमदर्दी के अलावा सचमुच कुछ देश के लिए करना इनकी फ़ितरत ही नहीं। तुलसी बाबा के शब्दों में, ‘झूठहि लेना झूठहि देना / झूठहि भोजन झूठ चबेना।’ दुनिया के हर देश में फ़ासीवादी विचारों की पार्टियां व संगठन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के सबसे घिनौने पैरोकार रहे हैं, भारत में भी आर एस एस उसी पूंजी का राजनीतिक उत्पाद है। इस वैज्ञानिक सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। इनका भारतीय संस्कृति से कोई लेना देना नहीं, संस्कृति के नाम पर लोगों को ठगना और उनमें संस्कृति के नाम पर आपसी भेद व नफ़रत पैदा करना ही इनका छिपा उद्देश्य है।


सौजन्य न्यूज़क्लिक.

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