प्रति,
मा. श्री नरेन्द्र मोदी,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार
मा. श्री गजेन्द्रसिंह शेखावत
जलशक्ति मंत्रालय, भारत सरकार
महोदय,
आप जानते ही होंगे कि इस साल देश के कई हिस्सों में, बिहार से महाराष्ट्र और केरल तक, भारी वर्षा तथा बड़े बांधों से जो डूब आयी है, उससे जल नियोजन पर काफी सवाल खडे हुए हैं। डूब से होता नुकसान या विनाश, विस्थापन तथा त्रासदी का अनुभव विदारक होता है, इतना ही नहीं तो लाखों को जड़ों से उखाड़ता है, यह अब साबित होते हुए शासन, प्रशासन और समाज की कोशिशों के बावजूद विस्थापितों के लिए राहत या पुनर्वास में कमीयां और अन्याय भी सामने आया है। बाढ़ और सूखे के चक्र पर सोचना भी बेहद जरूरी मान रही है जनता!
नर्मदा घाटी में यही त्रासदी झेलने वाले आदिवासी, किसान, मजदूर, मछुआरे… सभी ने सालों से अहिंसक संघर्ष के द्वारा अपना पुनर्वास का हक पाया है, लेकिन कम अधिक! सरदार सरोवर से लेकर अमरकंटक के पास बना बर्गी बांध तक एक-एक बांध के विस्थापितों ने बहुत कुछ भुगता है लेकिन कानून और न्याय का सहारा लेकर वैकल्पिक आबादी और आजीविका सुनिश्चित हो, यह आग्रह रखा है।
‘डूब के पहले पुनर्वास संपूर्ण और न्यायपूर्ण होना चाहिए’, यह सिद्वांत ही नहीं, स्पष्ट आदेश है, नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण याने नर्मदा ट्रिब्यूनल का जो 1979 का फैसला है उसमें सरदार सरोवर के विस्थापितों का पुनर्वास, लाभ और हानि का बटवारा, हर अंतर राज्य परियोजना के कई पहलू, निर्णय और निगरानी के लिए नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की संरचना आदि पर स्पष्ट निर्देश होता है। उसी के आगे बढ़ कर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्य की पुनर्वास नीति एवं समय समय पर निकले आदेश भी पुनर्वास का कानूनी आधार बने हुए है।
आज तक पुनर्वास आगे बढ़ने में सरदार सरोवर से प्रभावित 244 गांव और एक नगर के लोगों ने अपना अधिकार जानकर, हर मोड़ पर न्याय की गुहार लगाई और शासनकर्ताओं से अधिकारों को पाया। पुनर्वास का अधिकार मानव अधिकार का ही हिस्सा है, यह स्पष्ट होते हुए भी उसका उल्लंघन अन्याय लाता रहा तो सरदार सरोवर के और नर्मदा घाटी में बने या बन रहे अन्य बड़े बांधों के विस्थापितों को शासनकर्ताओं से संवाद और चर्चा के साथ सुप्रीम कोर्ट तक के आदेशों का सहारा भी मिलता रहा।
आज सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में फिर भी 32000 परिवार निवास कर रहे है, जिनका पुनर्वास आधा अधूरा हुआ है। म.प्र. के 16000 परिवारों को 2008-2010 तक किये गये पुनः परिक्षण के बाद (बैक वाटर से) प्रभावितों की सूची से हटाया गया, लेकिन प्रत्यक्ष में उनके मकान भी भू-अर्जित है, उन पर शासन का नाम चढ़ा है और उन्हें डूब से बाहर होने की कोई अधिकृत खबर नहीं है। साथ ही इन परिवारों के द्वार में 2013 तक ही डूब पहुंच चुकी है, इसलिए उनका अधिक वर्षा (जो अब जलवायु परिवर्तन के चलते बार-बार आ रही है) की स्थिति में अ-प्रभावित रहना मुमकिन नहीं है। इनमें से कईयों को पुनर्वास के लाभ मिले हैं, तो अन्य वंचित हैं। बैक वाटर लेवल में बदलाव अवैधानिक तरीके से किया गया, यह स्पष्ट है। अन्य हज़ारों परिवारों में मध्यप्रदेश के, महाराष्ट्र के और कुछ गुजरात के पहाड़ी आदिवासी भी हैं और मैदानी क्षेत्र के (निमाड़, मध्यप्रदेश) किसान, मजदूर, मछुआरे, व्यापारी कारीगर, कुम्हार, केवट आदि भी हैं। इन सबको कानूनन तथा शासन की घोषित नीतियों के आधार पर जो हक मिलना है, उसे पूर्ण रूप से न पाने के कारण मूल गांव में रहकर या पुनर्वास स्थलों से भी शासन या शिकायत निवारण प्राधिकरण (जी आर ए) तथा न्यायालय में आवाज़ देनी पड़ रही है। आज के रोज़ हज़ारों प्रकरण प्रलंबित है। मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव ने नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एन सी ए) को लिखे 27.05.2019 के पत्र अनुसार 8300 प्रकरण जी आर ए के सामने हैं और 2952 प्रकरणेां में वैकल्पिक ज़मीन की पात्रता का कानून, नीति पर आधारित दावा किया गया है। इन पर आदेश होना बाकी है, तथा सैकड़ों आदेशों का पालन हुआ भी नहीं है। इसी कारण गुजरात और महाराष्ट्र में हज़ारों को ज़मीन मिली है। हज़ारों को इन राज्यों में मकान बनाने के लिए भूखण्ड मिले है, फिर भी हज़ारों परिवार, पुनर्वास के लाभ बाकी होते हुए मूल गांवों में ही निवास कर रहे हैं। वहां आज भी खेती, छोटे उद्योग, दुकान, व्यापार, कई शालाऐं, मंदिर, मस्जिद, मवेशी, चारागाह आदि के साथ जीवन चल रहा है। पुनर्वास स्थलों पर पीने के पानी से लेकर कानूनन प्राप्त होने की सुविधाऐं चारागाह, निकास व्यवस्था आदि का अभाव होते हुए पुनर्वास संपूर्ण नहीं हो पाया है।
इस स्थिति में हजारो मकान, लाखों बड़े पेड़, शासकीय भवन, सांस्कृतिक, धार्मिक स्थल डूबेंगे, अगर जलाशय में पानी 131 मीटर तक भरा रहेगा या 138.68 मी तक बढ़ाया जाऐगा तो, यह निश्चित इससे प्राकृतिक नहीं, मानव निर्मित या शासन निर्मित विनाश का भयावह रूप सामने आएगा। यह कैसे हो सकता है?
क्या केन्द्र शासन और जलशक्ति मंत्रालय यह नहीं मानता कि विस्थापितों का संपूर्ण पुनर्वास उनकी संपत्ति डूबाने, उन्हें आजीविका से उजाड़ने के पहले पूरी करने की शर्त हैं और होना ज़रूरी है? क्या आप नर्मदा ट्रिब्यूनल, सर्वोच्च अदालत के फैसलों में दिए पुनर्वास के निर्देश, शासन के स्वयं घोषित की नीतियों और मानव अधिकारों का भी पालन न करते हुए, हज़ारों परिवारों के पीढ़ियों पुराने गांव मकान, खेती-बाड़ी, और कई-कई उद्योग… सब कुछ डूबाना मंजूर करेंगे? क्या यह विकास कहा जाएगा? क्या यह इन्सानियत होगी? अगर नहीं तो…
नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण और आपके द्वारा सरदार सरोवर में इस साल 139 मीटर तक पानी भरने का निर्णय नहीं लेना चाहिए। मात्र गुजरात का नहीं, सभी राज्यों के साथ, विकास के लिए जिनसे त्याग मांगा जाता है, ऐसे सभी विस्थापितों का हित ध्यान में रखना चाहिए। आप यह भी देखे कि विस्थापितों की संख्या, पुनर्वास जो बाकी है, उसका विवरण, आदि संबंधी, सत्य मंज़ूर करते हुए कानून और न्याय के पालन संबंधी स्पष्ट निर्देश दिए जाए।
वैसे भी इस साल गुजरात में पानी ही पानी बरसने पर एक ओर हाहाकार तो दूसरी ओर पानी की पूर्ण आपूर्ति हो चुकी है। मध्य प्रदेश को ना ही पिछली साल कुछ बिजली का लाभ इस बांध परियोजना से मिला है, ना ही मध्य प्रदेश में बिजली की कमी है। तो इस बरसात में सरोवर में पानी न भरते हुए, साल भर में पुनर्वास का आज भी चल रहा कार्य, विस्थापितों को, हमारी संगठित शक्ति को साथ लेकर, संवेदना और न्याय भावना के साथ पूरा हो सकता है। जिस बांध पर 64000 करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं, उस बांध के विस्थापितों के पुनर्वास के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता, कानून के ही अनुसार, उपलब्ध करने से तथा भ्रष्टाचारी अधिकारी और दलालों को दूर करने से यह ज़रूर संभव होगा।
यह न होने से आज ही सरदार सरोवर में 131.18 मीटर (जो 12 अगस्त के लिए एन.सी.ए. ने मंज़ूर की थी) के बदले 131.18 मीटर तक पानी भरने से जो अन्याय, अत्याचार भुगतना पड़ रहा है, उससे भी कई गुना अधिक होगा, यह आप भी समझ सकते हैं! हेलिकॉप्टर से या धरातल पर उतर कर आप तक नहीं पहुंची हो तो, सत्यता भी आप जांच सकते हैं। इस साल आप जलस्तर 122 मीटर या अधिक से अधिक 127 मीटर पर रोकने के लिए बांध के गेट्स का नियमन कर सकते है। आप मध्य प्रदेश शासन से ही नहीं, हम संगठित विस्थापितों से भी चर्चा, विचार और निर्णय लेकर, कटिबद्वता के साथ आगे बढ़ सकते है। विस्थापितों की कब्र पर कोई महल खड़ा करना विकास नहीं माना जा सकता। क्या आप भी इतनी संवेदना रखकर आगे बढ़ना चाहेंगे?
हमारी अपेक्षा है कि ऐसी स्थिति में, संवाद द्वारा संघर्ष कर के, युद्व जैसी स्थिति आने नहीं देते हुए आप न्यायपूर्णता के साथ पेश आए। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण में आज भी एम.के. सिन्हा और उनकी पत्नी सुमन सिन्हा के अलावा है कौन? इतनी महान नर्मदा, उस पर बनी महाकाय परियोजनाएं, पुनर्वास और पर्यावरण, जल नियोजन, नियमन व निगरानी इत्यादि सब कुछ साध्य करने की क्षमता उनमें है ही नहीं। श्री सिन्हा जी ने कई निर्णय सही, कानूनी व लाभपूर्ण नहीं लेकर परियेाजना को विलंब में फसाया, यह भी स्पष्ट है। एक ही व्यक्ति, जो इलेक्ट्रिकल इंजिनीयरिंग की पदवीधर हो, इतने बड़े प्राधिकरण में पुनर्वास, पर्यावरण, सिविल इजिनीयरिंग और विद्युत जैसे सभी विशेषज्ञों का तथा प्राधिकरण का सचिव कार्य कैसे संभाल सकता है? केवल कार्यपालक सदस्य की पत्नी होने से?
नर्मदा के साथ खिलवाड़ किसी भी राज्य और देश के हित में नहीं हो सकता है। इस पीढ़ियों पुरानी, देश की सबसे पुरानी नदी और सभ्यता का विनाश हाहाकार मचाएगा, उत्तराखंड जैसी त्रासदी लाएगा। तो क्या ‘विकास’ के नाम पर हम सब खुश हो जाएंगे? क्या किसी की जीत या किसी की हार मनाएंगे? क्या इतिहास में उसे दर्ज करा पाएंगे?
न्याय की और इस पत्र के जवाब की भी अपेक्षा सहित,
देवराम कनेरा, पेमा भिलाला, नूरजी वसावे, कमला यादव, ओमप्रकाश, श्यामा मछुआरा, देवीसिंह तोमर, लक्ष्मी नारायण, राहुल यादव,मेधा पाटकर और नर्मदा घाटी के हजारों हजारों विस्थापितों की ओर से….
-13 अगस्त 2019