देश की शिक्षा व्यवस्था कैसी हो, इस पर बहस बहुत पुरानी है। आजादी के पहले ही शिक्षा में सुधार की बात शुरू हो गई थी। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए चार साल पहले एनडीए-1 के दौरान मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने डॉ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक नौ सदस्यीय समिति का गठन किया था। कुछ समय पहले समिति ने अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंपी। रिपोर्ट को मंत्रालय की वेबसाइट पर डालकर नागरिकों, प्रबुद्धजनों और शिक्षाविदों से राय मांगी गई। उसके बाद से यह रिपोर्ट ‘नई शिक्षा नीति का प्रारूप’ के नाम से चर्चा में है। नई शिक्षा नीति के लागू होने पर देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात कही जा रही है तो वहीं पर शिक्षा जगत के भगवाकरण की आशंका भी व्यक्त की जा रही है। विश्वविद्यालयों और संस्थानों के निजीकरण और स्वायत्तता के खत्म होने की भी बात कही जा रही है। इन्हीं सवालों के मद्देनजर देश के जाने-माने शिक्षाविद् प्रो. कृष्ण कुमार से विशेष बातचीत की गई। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश :
प्रश्न- नई शिक्षा नीति इस समय देशव्यापी चर्चा का विषय बनी हुई है। इसको लेकर तमाम तरह की आशंकाएं हैं। नई शिक्षा नीति प्रस्ताव में शिक्षा प्रणाली को ज्यादा उदार और लचीला बनाने की बात हो रही है। पेशेवर शिक्षण संस्थाओं के ढांचे को व्यापक बनाने की बात हो रही है। क्या नई शिक्षा नीति के लागू होने से शिक्षण संस्थाओं का निजीकरण आसान हो जाएगा ?
प्रो. कृष्ण कुमार: नब्बे के दशक से शुरू हुए उदारीकरण ने शिक्षा को बाजार की वस्तु बना दिया है। सरकारों की नजर में शिक्षा घाटे का सौदा है। कोई भी सरकार शिक्षा के जरूरी बदलाव के पक्ष में नहीं है। व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर निजी संस्थानों को खुली छूट मिली हुई है।
प्रश्न- क्या नई शिक्षा नीति की सिफारिश लागू होने से विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता प्रभावित होगी ?
प्रो. कृष्ण कुमार: समिति ने नीति आयोग की तरह एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन की सिफारिश की है। यह प्रस्ताव बहुत ही केन्द्रीयकरण वाला है। अभी तक हर विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा संस्थान कई मामलों को तय करने में स्वतंत्र हैं। दूसरी बात शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। राज्य सरकारें इस पर कितना सहमत होती हैं यह अलग सवाल है। राज्य सरकारों का शिक्षा में अहम रोल होता है। उच्च शिक्षा के अलावा माध्यमिक शिक्षा के लिए हर राज्य के अपने अलग-अलग शिक्षा बोर्ड हैं, अब देखना यह है कि क्या राज्य सरकारें अपना बोर्ड विघटित करके एक केंद्रीय बोर्ड को स्वीकार करेंगे? यदि पूरे देश में एक बोर्ड और एक तरह का पाठ्यक्रम होगा तो निश्चित ही विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी।
प्रश्न- नई शिक्षा नीति का जो प्रारूप है उसमें बच्चों की शिक्षा को तीन साल की उम्र से शुरू करने की बात कही गई है। जबकि प्राथमिक शिक्षा के शुरुआत की उम्र छह वर्ष मानी जाती है। मनोवैज्ञानिक की राय में भी कम उम्र में बच्चों को स्कूल भेजना अच्छा नहीं माना जाता है। ऐसे में क्या अल्पायु में ही बच्चों का मन-मस्तिष्क पढ़ाई के बोझ से प्रभावित नहीं होगा ?
प्रो. कृष्ण कुमार: नई शिक्षा नीति के प्रारूप में कक्षा-एक से पहले तीन साल की शिक्षा की बात कही जा रही है, यह आंगनवाड़ी वाली शिक्षा है। इसे आदर्श रूप में लागू किया जाए तो इसमें बच्चों के पढ़ने पर नहीं बल्कि खेलने-कूदने पर ज्यादा जोर होगा। लेकिन यदि इसे लागू करने की गंभीर तैयारी नहीं हुई तो यह कक्षा-एक वाली पढ़ाई ही हो जाएगी। इससे बच्चों के मन-मस्तिष्क पर गंभीर प्रभाव पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे में यह जरूरी है कि इसे लागू करने के पहले जमीनी स्तर पर बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जाए।
प्रश्न- समिति ने सिफारिश की है कि बच्चों को पांचवीं कक्षा तक उनकी मातृभाषा में ही पढ़ाया जाए। क्या यह पब्लिक स्कूलों पर भी लागू होगा, जहां सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ाई होती है। आज देश में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षित छात्रों का भविष्य अन्य भाषाओं में शिक्षित छात्रों से बेहतर नजर आता है। ऐसे में यह कवायद कहीं मातृभाषा में शिक्षा पाए छात्रों पर भारी न पड़ जाए ?
प्रो. कृष्ण कुमार: हमारा देश विविधतापूर्ण है। भाषा-बोली से लेकर यह धर्म-संस्कृति और रहन-सहन सब में दिखता है। राज्यों की अपनी मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम है, इसके साथ ही पूरे देश में अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूलों का भी जाल है। पब्लिक स्कूलों में शहरी पृष्ठभूमि और संपन्न लोगों के बच्चे शिक्षा पाते हैं। आज भी शासन-प्रशासन और नीतियों को बनाने की भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी का दबदबा अब भी कायम है। ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्र कई जगहों पर अंग्रेजी के कारण पीछे हो जाते हैं। बड़ा प्रश्न यह है कि नई शिक्षा नीति के प्रारूप में इसका कोई जिक्र नहीं है।
प्रश्न- नई शिक्षा नीति में शिक्षा का बजट बढ़ाने की बात कही गई है। एक साथ तो नहीं लेकिन धीरे-धीरे इसे 20 प्रतिशत तक ले जाने की बात कही गई है। आपको लगता है कि सरकार शिक्षा का बजट 20 प्रतिशत करेगी?
प्रो. कृष्ण कुमार: आने वाले दिनों में सरकार शिक्षा पर कितना खर्च करेगी, यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन अभी शिक्षा पर बहुत ही कम खर्च किया जा रहा है। शिक्षा पर जितने भी कार्यक्रम चल रहे हैं सब बजट के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। शिक्षा का अधिकार कार्यक्रम भी इसमें शामिल है। स्कूलों,कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का हाल खस्ता है। बुनियादी संसाधनों के साथ ही शिक्षक और शिक्षणेत्तर कर्मचारियों की भारी कमी है। विश्वविद्यालयों का हाल तो बहुत बुरा है। छात्रों की संख्या तो दिनोंदिन बढ़ती जा रही है लेकिन सुविधाओं का टोटा है। छात्र और शिक्षकों का अनुपात बिगड़ गया है। इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
प्रश्न- प्रारूप में भारी-भरकम शब्दों की भरमार है। एक शब्द लिबरल आर्ट्स शब्द बार-बार आता है, इसका क्या अर्थ है?
प्रो. कृष्ण कुमार: लिबरल आर्ट्स अमेरिकी शिक्षा पद्धति है। भारत सरकार भी देश में अमेरिका जैसी शिक्षा देना चाहती है। अमेरिकी अंडरग्रेजुएट शिक्षा की जड़ें लिबरल आर्ट्स एजुकेशन में हैं, जिसमें सामान्य शिक्षा को बेहद महत्वपूर्ण स्थान हासिल है। सभी अंडरग्रेजुएट बैचलर डिग्री के विकास का लक्ष्य हर छात्र में रचनात्मक चिंतन, कौशल और योग्यता विकसित करना होता है, ताकि वे यह जान सकें कि किस तरह से चीजें सीखनी होती हैं और कैसे खास अकादमिक क्षेत्र में प्रवीणता हासिल की जाती है।
प्रश्न- नई शिक्षा नीति से क्या देश के शिक्षा जगत में बुनियादी बदलाव देखने को मिल सकेगा ?
प्रो. कृष्ण कुमार: चार साल पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा में सुधार के लिए एक समिति का गठन किया था। इस नौ सदस्यीय समिति के अध्यक्ष डॉ. के कस्तूरीरंगन बनाए गए थे। समिति ने अभी अपनी रिपोर्ट दी है। इस पर लोगों के सुझाव आ रहे हैं। अभी नई शिक्षा नीति के प्रस्ताव पर संसद में चर्चा होगी, कई चीजें तब स्पष्ट होकर सामने आएंगी। राज्य सरकारों का इस पर क्या रूख रहता है, यह सब भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे में अभी नई शिक्षा नीति के सफलता-विफलता पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी।