आज 11 अप्रैल से लोकसभा चुनाव 2019 की शुरुआत हुई है। ये एक अच्छा दिन है कि हम भारत के पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी जैसी आवाज़ को सुनें।
हम यहाँ उनके व्याख्यान का हिंदी अनुवाद पेश रहे हैं जो उन्होंने लेफ़्टवर्ड बुक्स द्वारा छपी ए.जी. नूरानी की किताब आरएसएस: अ मीनेस टू इंडिया के लोकार्पण पर दिया था।
नूरानी जी बेहद रचनात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति हैं। इसका एक और प्रमाण ये किताब है जिसमें हर बात बहुत मेहनत और लगन से लिखी गई है। यह किताब समसामयिक भी है।
आज के समय में आरएसएस को एक शोध का विषय मानकर उसकी सच्चाई ज़ाहिर करना तर्कसंगत है। अंग्रेज़ी भाषा में इस विषय पर पिछले आठ महीनों में छपने वाली यह दूसरी किताब है। इससे पहले वॉल्टर ऐंडरसन और श्रीधर दामले की पुरानी किताब का रूपांतरण किया गया था। इस किताब में केस स्टडी के माध्यम से इस संगठन से जुड़ी धारणाओं (पूर्वसर्गों) के बारे में बताया गया था। साथ ही इसमें उन संगठनों का भी ज़िक्र था जो आरएसएस से जुड़कर तथाकथित सामाजिक एकता के रूप में उभरकर सामने आए थे।
नूरानी जी की यह किताब संगठन की संरचना से ऊपर की बात करती है और इसमें यह भी बताया गया है कि आधुनिक भारत, आज़ादी के पहले और बाद के सालों में जटिल परिस्थितियों से गुजरते हुए कैसे आरएसएस ने प्रगति की थी। इस किताब में नूरानी ने यह भी बताया है कि आरएसएस और इसके उद्देश्यों को लेकर डॉक्टर अम्बेडकर और जवाहलाल नेहरू की क्या राय थी। इस किताब में संगठन से जुड़ी जानकारियाँ व्यापक (विस्तृत) रूप में दी गई हैं। मुख्य रूप से परिशिष्ट और उसके साथ के दस्तावेज़ों में ज़रूरी जानकारी दी गई हैं।
अपेंडिक्स 12 में आरएसएस का संविधान दिया गया है। भूमिका में आरएसएस के उद्देश्यों का ज़िक्र किया है जिसमें मुख्य है ‘हिन्दुओं में सम्प्रदाय, विचारधारा, जाति, सिद्धान्त और राजनैतिक, आर्थिक, प्रांतीय विभिन्नता के कारण उत्पन्न होने वाली खण्डता को मिटाना’ और ‘हिन्दू समाज का उत्थान करना।”
इसी प्रकार से, संगठन से जुड़ने वाले हर व्यक्ति को संघ प्रार्थना और शपथ के माध्यम से यह बताया जाता है कि ‘मैं हिन्दू धर्म, हिन्दू समाज, और हिन्दू संस्कृति के विकास को बढ़ावा देकर भारतवर्ष की संपूर्ण श्रेष्ठता के लिए काम करूँगा।’
इस तरह से सारा ध्यान हमारी जनसंख्या के उन 80% लोगों पर है जो हिन्दू धर्म को स्वीकारते हैं। दूसरे शब्दों में, हर पाँचवां भारतीय, जो कि जनसंख्या का 20 प्रतिशत है, आरएसएस की उल्लखित सीमा से बाहर है और इसलिए वे कथित रूप से आरएसएस की निदेशात्मक (बताई गई) विचारधारा से बाहर हैं।
हमारे सामने 3 सवाल आते हैं (1) क्या 80% हिन्दू 100% भारतीयों का पर्याय हो जाते हैं? (2) क्या 20% ग़ैर-हिन्दू बाक़ी 80% जनता के साथ मिल जाते हैं? (3) भारत का संविधान, इसका लोकतांत्रिक ढाँचा, समानता के सिद्धान्त और अधिकार पत्र जिसमें अपने धर्म को अपनाने, पालन करने, और उसे आगे बढ़ाने का अधिकार भी आता है, हमारी मिली-जुली संस्कृति की समृद्ध विरासत के महत्त्व को समझना और उसको सहेजने का कर्तव्य जो हर नागरिक को दिया गया है, उसका क्या होगा?
पहले दो सवालों का जवाब तब तक पूरी तरह से नकारात्मक है जब तक कि संविधान के उल्लंघन से जुड़े बदलाव की अघोषित प्रक्रिया शुरू नहीं की जाती है। तीसरे सवाल का जवाब स्पष्ट है कि संविधान देश का मूलभूत क़ानून है, हर नागरिक पर बाध्य होता है और बाक़ी सभी ताल्लुक़ों से भी ऊपर है।
साल दर साल, आरएसएस अपने सहयोगियों के साथ मिल कर हिन्दुत्व के विचारों को बढ़ावा दे कर आम जनता की नीतियों पर प्रभाव डालने का काम किया है। ये सब आरएसएस ने सांस्कृतिक पुनरोद्धार(फिर से ज़िंदा करना) और राजनीतिक जुटाव के ज़रिये किया है, जिसका मक़सद “जातीय बहुलता को एक मनगढ़ंत सांस्कृतिक मुख्य धारा के द्वारा ख़त्म करना है।” इसकी वजह से आरएसएस के अनुयाइयों ने सामाजिक हिंसा को भी बढ़ावा दिया है।
सिर्फ़ धार्मिक बहुलता के विश्वासों के आधार पर जिस भारतीय राष्ट्रीयता को आरएसएस के सिद्धांतों के द्वारा दर्शाया गया है, उसका नागरिकों पर काफ़ी नकारात्मक सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव पड़ता है, साथ ही ये संविधान का भी उल्लंघन है। इस अर्थ में, ये सिद्धांत उस भारत के लिए हानिकारक है जिसे हम जानते हैं, आज़ादी की उस लड़ाई का खंडन है जिसे हम सबने साथ मिलकर लड़ा था, ये बहुलता वाले समाज के अस्तित्व की सच्चाई को नकारने वाला है, एकरूपता और आत्म-सत्कार्ता का छलावरण है, हमारी भूमि की विविधता और अधिकता को मिटाने का साधन है, नागरिक राष्ट्रीयता को सांस्कृतिक राष्ट्रीयता में, और लिबरल(आज़ाद) लोकतंत्र को संजातीय लोकतंत्र में बदलने का एक यंत्र है।
जय हिन्द