भारत पाकिस्तान में जंग की सरगर्मियों के बीच, ये वक़्त है कुछ देर के लिये ये सोचने का कि जंगों में लड़ने और मर जाने वाले सिपाही कौन होते हैं? क्या वो सिर्फ़ मेजर, जनरल, कर्नल, हवलदार, सूबेदार होते हैं, या इसके अलावा भी उनकी कोई पहचान होती है! जंग सिर्फ़ दो देशों के बीच नहीं, हज़ारों हज़ार इंसानों के बीच भी होती है। जंगें ज़िंदगियाँ खा जाती हैं, इसमें जश्न मनाने जैसा कुछ नही।
निम्नलिखित जंग में मरने वाले सिपाही के नाम मख़दूम मोहियुद्दीन की एक नज़्म है, जिसे गाया है सुमंगला दामोदरन ने। नज़्म बताती है कि जंग में मरने वाला सिपाही सिर्फ़ एक सिपाही नहीं, बल्कि किसी का पति, बाप, बेटा, भाई और सबसे ऊपर एक इंसान भी होता है। जंग चाहने वाले और जंगों का जश्न मनाने वाले शायद ये भूल जाते हैं कि जंगों में मरने वाले सिपाहियों का ख़ून दरअसल एक इंसान का ख़ून होता है…
आइए हम एकजुट हो कर दिन-प्रतिदिन अपने "नेताओं" द्वारा प्रतिपादित घृणा के विस्र्द्ध में आवाज उठाएं और कहें कि "हम जंग के ख़िलाफ़ हैं!"
जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहाँ जा रहा है
कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
ज़िंदगी है कि चिल्ला रही है
जाने वाले …
कैसे सहमे हुए हैं नज़ारे
कैसे डर-डर के चलते हैं तारे
क्या जवानी का ख़ून हो रहा है
सुर्ख़ है आंचलों के किनारे
जाने वाले …
गिर रहा है स्याही का डेरा
हो रहा है मेरी जां सवेरा
ओ वतन छोड़ कर जाने वाले
खुल गया इंक़लाबी फरेरा
जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहाँ जा रहा है
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