उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे
-जिगर मुरादाबादी
पुलवामा में 14 फ़रवरी को हुए हमले के बाद मुल्क में दो तरह की सियासत बेहद अस्त-व्यस्त चल रही है: एक वो जो दिल्ली में अलग-अलग मिनिस्ट्री में होती है, दूसरी वो जो फ़ेसबुक पर होती है। देखा गया है कि फ़ेसबुक की सियासत ज़्यादा गंभीर, ज़्यादा ग़ुस्सैल, ज़्यादा हिंसक और ज़्यादा बेवकूफ़ होती है।
इस दौर में जब भारत-पाकिस्तान जंग की ओर आमादा हैं, जिसके तहत भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान पर एक हमला भी किया है, और फ़ेसबुक के ज़रिये नफ़रत और हिंसा फैलाने की कोशिशें लगातार जारी हैं, हमें ख़ुद से ये पूछना चाहिये कि क्या जंग वाक़ई ज़रूरी है?
हमें भले ही सियासत की समझ नहीं है, हम ये भी नहीं जानते कि सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए क्या क़दम उठाने चाहिये! हम ना पाकिस्तान की सरकार के हितैषी हैं, ना ही पाकिस्तान की आवाम के दुश्मन। मगर इंसानियत के नाते हम इतना ज़रूर यक़ीन रखते हैं कि जंग ज़िंदगियाँ तबाह कर देती है।
मीडिया और सरकारों को जंग से TRP और वोट तो मिल जाएंगे लेकिन आम ज़िंदगियाँ दोनों तरफ़ ही तबाह हो जाएंगी।
ऐसे वक़्त में साहिर लुधियानवी की नज़्म 'ऐ शरीफ़ इंसानो' पढ़ना ज़रूरी सा लगता है। इस नज़्म में साहिर बात करते हैं कि इस तरह से दो देशों की फ़ौजें जब जंग लड़ती हैं, तो उनके साथ-साथ दोनों देशों की आवाम को उसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है। जंग सिर्फ़ दो देशों के बीच नहीं, हज़ारों हज़ार इंसानों के बीच भी होती है।
सामूहिक मृत्यु का उत्सव मनाना कब से स्वीकार्य हो गया? जंगें ज़िंदगियाँ खा जाती हैं, इसमें जश्न मानाने जैसा कुछ नही।
आइए हम एकजुट हो कर दिन-प्रतिदिन अपने "नेताओं" द्वारा प्रतिपादित घृणा के विस्र्द्ध में आवाज उठाएं और कहें कि "हम जंग के ख़िलाफ़ हैं!"
ऐ शरीफ़ इंसानो
1
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में
अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें कि औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
टैंक आगे बढ़ें कि पिछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़त्ह का जश्न हो कि हार का सोग
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
आग और ख़ून आज बख़्शेगी
भूक और एहतियाज कल देगी
इस लिए ऐ शरीफ़ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शम्अ' जलती रहे तो बेहतर है
2
बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
ख़ूँ बहाना ही क्या ज़रूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को
घर जलाना ही क्या ज़रूरी है
जंग के और भी तो मैदाँ हैं
सिर्फ़ मैदान-ए-किश्त-ओ-ख़ूँ ही नहीं
हासिल-ए-ज़िंदगी ख़िरद भी है
हासिल-ए-ज़िंदगी जुनूँ ही नहीं
आओ इस तीरा-बख़्त दुनिया में
फ़िक्र की रौशनी को आम करें
अम्न को जिन से तक़्वियत पहुँचे
ऐसी जंगों का एहतिमाम करें
जंग वहशत से बरबरिय्यत से
अम्न तहज़ीब ओ इर्तिक़ा के लिए
जंग मर्ग-आफ़रीं सियासत से
अम्न इंसान की बक़ा के लिए
जंग इफ़्लास और ग़ुलामी से
अम्न बेहतर निज़ाम की ख़ातिर
जंग भटकी हुई क़यादत से
अम्न बे-बस अवाम की ख़ातिर
जंग सरमाए के तसल्लुत से
अम्न जम्हूर की ख़ुशी के लिए
जंग जंगों के फ़लसफ़े के ख़िलाफ़
अम्न पुर-अम्न ज़िंदगी के लिए
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