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इन कारणों से पेरियार ने किया था मनुवादी ग्रंथों को जलाने के लिए युवाओं का आह्वान

byICF Team
November 22, 2018
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                                                      ई वी रामास्वामी पेरियार (जन्म : 17 सितंबर, 1879 – निधन : 24 दिसंबर 1973)​

ब्राह्मणवादी ग्रंथों के बारे में पेरियार के विचार

(ई. वी. रामास्वामी पेरियार (जन्म : 17 सितंबर, 1879 – निधन : 24 दिसंबर 1973) द्वारा तामिलनाडु के त्रिची में 21 फ़रवरी 1943 को दिया गया भाषण, जो मुख्यतः युवाओं को सम्बोधित था)

पेरियार बीमार पड़ गए थे और पांच-छह महीने तक वे अपने श्रोताओं से अलग रहे और किसी भी सभा को संबोधित नहीं किया। यह फरवरी 1943 के आसपास की बात है। इस दौरान उन्होंने युवाओं को संबोधित किया और यह भाषण ‘युवाओं का आह्वान’ शीर्षक भाषणमाला के रूप में पुस्तकाकार सामने आया। इस भाषण शृंखला के तहत वे मुख्यतया युवाओं से मुखातिब रहे और कई विषयों पर उनको संबोधित किया। ‘अज्ञानता का साहित्य’ नामक भाषण इसी का एक हिस्सा है। प्रस्तुत है इस भाषण का यह अंश –

अज्ञानता का साहित्य है ब्राह्मणवादियों का साहित्य

एक अन्य बात जिसने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, वह है अवांछित साहित्य को जलाने का मुद्दा। मुझे इसका जिम्मेदार ठहराया गया है। खुद का सम्मान करने वाले आखिर ऐसा क्यों कर रहे हैं? ऐसा सिर्फ तमिलों को इस तरह के पुस्तकों का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित करने के लिए किया जा रहा है जिसे हम मनु संहिता कहते हैं और जो धर्म और ईश्वर में विश्वास पैदा करने के लिए जिम्मेदार है। रामायण को एक ईश्वर की कहानी के रूप में रचा गया है। पेरिया पुराणम को भी इसी तरह रचा गया है। इन्हें तमिलों के साहित्य के रूप में बहुप्रचारित किया जाता है। यही कारण है कि हम तमिलों से इस तरह के साहित्य का बहिष्कार करने को कह रहे हैं। इन साहित्यों को जलाना एक औपचारिक सांकेतिक विरोध है। बहुत लोगों ने मुझे पत्र लिखा है और सुझाया है कि हम हिन्दू कानून को भी जलाएँ क्योंकि यह भी मनु की संहिता पर आधारित है। हम लोग वर्षों से यह कह रहे हैं। आज हमें मनु की संहिता के आधार पर ही चलाया जा रहा है। हम एक के बाद एक कार्य को अंजाम देंगे। पहले हम तीन पुस्तकों, मनु की संहिता, रामायण और पेरिया पुराणम को जलाएं। लेकिन तमिल पंडित और हमारे बीच के शैव मतावलंबी हमारे (स्वाभिमान आंदोलन के लोगों के) खिलाफ हंगामा कर रहे हैं।

चलिए, पहले यह देखने की कोशिश करें कि कैसे ये पुस्तकें हमसे जुड़ी हुई हैं। इसके बाद हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि इसमें है क्या? और फिर हम यह देखेंगे कि क्या ये किसी भी तरह से हमारे लिए उपयोगी हैं? हमें यह जानना चाहिए कि इन पुस्तकों में जिन अज्ञानतापूर्ण विचारों की बातें कही गई हैं क्या उनको मानने से हमें कोई लाभ है? इन बातों पर बहुत गहराई से गौर करने के बाद ही हम इनके बारे में बात कर सकते हैं।

ये तीनों ही पुस्तकें द्रविड़ तमिलों से कतई संबंधित नहीं हैं। ये किसी भी तरह से हमारी मदद नहीं करते हैं। अगर किसी तमिल का यह विचार है कि मनु की संहिता को नहीं जलाया जाना चाहिए, तो हमें उसके जन्म के बारे में ही संदेह उत्पन्न हो जाता है। रामायण भी मनु की संहिता की तरह ही है। कुछ पंडितों ने कम्ब रामायण को बहुमूल्य साहित्य कहकर उसकी प्रशंसा की है। वे इसको जलाए जाने के खिलाफ हैं। लेकिन रामायण के लेखक भी इसको साहित्य नहीं कहते। कंबर खुद ही कहते हैं – “दुनिया मेरे बारे में भले ही भला-बुरा कहे, और मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाए, इस खतरे के बावजूद मेरी कृति यह बताना चाहती है”।

उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है की रामायण साहित्यिक कृति नहीं है।

रामायण उनके लिए सिर्फ अपनी प्रतिभा स्थापित करने वाली महान कृति है। कुछ अन्य लोग हैं जिनका कहना है कि पेरिया पुराणम इतिहास है और यह खगोलशास्त्र, और भूगोल के बारे में काफी सूचनाएँ देता है। उनका कहना है कि इसे जलाना नहीं चाहिए।

रामायण और कंड पुराणम की रचना प्रतिस्पर्धी भावना से हुई थी। पेरिया पुराणम की रचना भक्तविजयम और भक्त लीलामृतम का मुक़ाबला करने के लिए लिखा गया था। अगर आप इन सभी पुस्तकों को पढ़ेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा।

रामायण और कंड पुराणम की विचारधारा एक ही है। राम की पैदाइश ‘अरक्करों’ (राक्षसों) को मारने के लिए हुई। ऐसा माना जाता है कि महाविष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया। इसी तरह देवों ने परमशिवम से ‘असुरों’ (गैर-ब्राह्मण द्रविड़ों) को मारने की प्रार्थना की। इस उद्देश्य के लिए कंडन परमशिवम का बेटा बनकर पैदा हुआ। राम की पत्नी सीता कहां पैदा हुई और उसके माँ-बाप कौन थे इस बारे में उसमें कोई जानकारी नहीं है। इसी तरह, कंडन की पत्नी वल्ली के जन्म और उसके माँ-बाप के बारे में कुछ पता नहीं है।

1954 में रंगून में मिले थे। वे दोनों विश्व बौद्ध कांफ़्रेंस में भाग लेने बर्मा की राजधानी पहुंचे थे

राम की पैदाइश एक बेहूदी बात है। वह ब्राह्मणों के घर पैदा हुआ था, जो यज्ञ करते थे। कंडन के जन्म का हाल तो उससे भी बुरा है। जब परमशिवम का वीर्य धरती पर पड़ा तो वह उसको बर्दाश्त नहीं कर सकी। इसलिए उसे समुद्र की ओर मोड़ दिया गया। कंडन वहीं पैदा हुआ। यह मैं नहीं कह रहा हूं। विश्वामित्र ने यह सब कहा है। रामायण में कहा गया है कि जब ज्यादा से ज्यादा संख्या में राक्षस मारे जा रहे थे, ऐसा कहा जाता है कि उतनी ही संख्या में नए राक्षस पैदा भी हो रहे थे। इसी तरह, कंड पुराण में कहा गया है कि असुरों के गर्दन काटे जा रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि मृत असुर दुबारा जीवित हो रहे थे। आपको रामायण और कंड पुराण में इसी तरह की कई सारी समानताएं मिलेंगी। शैव व वैष्णव भक्तों के व्यवहारों की अगर हम बात करें, तो हम उन्हें एक ही जैसा पाते हैं, ये एक-दूसरे की नकल करते हुए पाए जाते हैं।

शैववाद में, तिरुनीलकंदर नामक एक अनुयायी का नाम आता है जो कि कुम्हार है। इसी तरह, वैष्णववाद में, हमें गोरकुम्मबर नामक एक अनुयायी के बारे में बताया जाता है। वह भी कुम्हार है। दोनों ही भक्तों की कहानी एक जैसी है। दोनों की ही अपनी पत्नी से नहीं बन रही थी। वे अपनी पत्नी से बात तक नहीं करते थे। विष्णु ने गोरकुम्मबर और उसकी पत्नी के बीच मेलजोल कराया। परमशिवम ने तिरुनीलकंदर और उसकी पत्नी के बीच सुलह कराई।

इसके बावजूद कि रामायण को वैष्णव लोग एक महाकाव्य मानते हैं, हिन्दू शैव पेरिया पुराणम को अपना महाकाव्य मानते हैं। इन लोगों से कुछ सीखने को मिलेगा, ऐसा आसानी से नहीं कहा जा सकता। इन महाकाव्यों में अनुशासनहीनता, वेश्यावृत्ति और आत्मसम्मानरहित बातों की भरमार है।

अगर हम इन्हें दैवी साहित्य मानते हैं और इन महाकाव्यों और इनके भगवान और धर्म की शान में कसीदे गढ़ते हैं तो हम अपने जीवन में उन्हीं असभ्य और बर्बर स्थिति का प्रदर्शन करेंगे।

एक भक्त अपनी पत्नी को स्वेच्छा से किसी ब्राह्मण को पेश कर देता है। एक अन्य भक्त अपनी केहुनी से चन्दन रगड़ता है। एक श्रद्धालु अपनी बेटी के बाल किसी मंदिर में चढ़ाता है। इन बातों को पढ़ने का क्या मतलब है? यह सबसे ऊंची जाति के ब्राह्मणों को कुछ भी और सब कुछ समर्पित करने को ही सही ठहरा सकता है। इस तरह की कहानियां समाज में सामंजस्य को बिगाड़ती हैं। आपको शैववाद में एक अछूत नंदनार की कहानी मिलती है। इसी तरह, आपको एक अन्य अछूत सोक्कमेला का जिक्र वैष्णववाद में मिलता है। इनकी कहानियां भी एक जैसी हैं। इन्हें मंदिरों में प्रवेश दिया गया और उनको उनके भगवानों ने मुक्ति दी।

वैष्णववाद में तो भगवान के नाम पर चोरी करने और धोखेबाज़ी की भी अनुमति दी गई है। तिरुमंगई अलवार की कहानी में इसको महिमामंडित किया गया है। इसी तरह, शैववाद में मानिक्का वासगर की कहानी चोरी और धोखेबाज़ी का समर्थन करता है। इन दोनों ने अपनी चोरी और धोखेबाज़ी से अपने-अपने भगवानों की जो सेवा की, उससे प्रसन्न हो, उनके भगवानों ने उन्हें मुक्ति दी। वैष्णव और शैव भगवानों के बीच एक हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और बर्बर प्रतिस्पर्धा है। वे अपने भक्तों की जांच के तरीके सुझाते हैं यह सोचते हुए कि वे खुद काफी बुद्धिमान हैं। तथाकथित पवित्र ब्राह्मणों को चढ़ावा चढ़ाने को लेकर घृणारहित भ्रांति रची जाती है। कोई मूर्ख ही इस बात में विश्वास करेगा कि हिन्दू समाज को इन पुस्तकों से किसी तरह की मदद मिलेगी। इसी तरह, अगर तमिल विद्वान और उत्साही लोग इन पुस्तकों का पक्ष लेते हैं और इसका प्रचार-प्रसार करने की इच्छा रखते हैं तो हम सिर्फ यह कहेंगे कि वे तमिल समाज का बहुत अहित कर रहे हैं। शुरू से अंत तक, हमें रामायण में कुछ भी अच्छा और न्यायपूर्ण नहीं मिला है। राम का हर कृत्य उत्पीड़नकारी है। हम उसकी पूजा कैसे करें? क्या कोई यह कहने का साहस कर सकता है कि रामायण किस तरह से अधिकांश लोगों के हित में है?​

   पेरियार और उनकी पत्नी मनियम्मई 

अगर इसको महाकाव्य या साहित्य माना जाता है, तो क्या उसको इस तरह का स्टेटस देने के लिए कोई नियम नहीं होना चाहिए? क्या कल्पना की कोई सीमा नहीं है? क्या कोई अपनी पत्नी से सिर्फ़ इसलिए अलग हो सकता है कि क्योंकि किसी कवि ने ऐसी कल्पना की है? कोई व्यक्ति अनुयायी द्वारा स्थापित उदाहरण का किस तरह से पालन कर सकता है? क्या इस तरह के लोगों की पिटाई नहीं की जानी चाहिए? तमिल विद्वान और पंडित इस साधारण बात को नहीं समझ रहे हैं। वे लोगों का आदर कैसे प्राप्त कर सकते हैं? शैववादी तमिल पंडित इस बात पर ज़ोर डालते हैं कि पेरिया पुराणम की सुरक्षा की जाए। वे कहते हैं  कि इसमें ऐतिहासिक और भौगोलिक सत्य मौजूद हैं और कई खगोलीय तथ्य भी इसमें हैं।

हम विशेषज्ञों की इन महत्त्वपूर्ण विषय पर लिखी पुस्तकें बड़ी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। शोधकर्ता विद्वानों की लिखी ये पुस्तकें काफ़ी सस्ती हैं। इन तथ्यों को नज़रअन्दाज़ कर दक्षिण अफ्रीका के सहारा मरूस्थल में चावल के दाने की खोज करना कौन सी बुद्धिमानी है जबकि किराने की दुकान पर कई क़िस्मों की चावल जितना चाहें उतना उपलब्ध है?

बाज़ार में कई सारी कहानियों की किताबें उपलब्ध हैं। हमारे लोग उसको नहीं पढ़ते हैं। क्यों? इसलिए क्योंकि ये कहानियां धार्मिक नहीं हैं। वे कहानियां देवत्व की कहानियाँ नहीं हैं। ये धार्मिकता का पाठ नहीं पढ़ाती हैं। ये तमिल समुदायों को अपमानित नहीं करती हैं। ये पुस्तकें हमें एक दास की तरह ग़ुलाम नहीं बनाती हैं। ये पुस्तकें बर्बर नहीं हैं। यही कारण है कि हम धार्मिक पुस्तकों के अलावा और किसी भी तरह की पुस्तकों की कोई परवाह नहीं करते। धर्म और उनके भगवान और उनसे जुड़ी पुस्तकों को पूरी तरह नष्ट कर देना चाहिए। हमें इनका अस्तित्व मिटा देना चाहिए। हमें इन्हें किसी भी रूप में बचे रहने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। तभी हम स्वाभिमान के साथ ज़िंदा रह सकते हैं। इन्हीं महान उद्देश्यों को को पूरा करने के लिए, हम इन धार्मिक पुस्तकों को नष्ट कर रहे हैं।

हमारी यह दृढ़ धारणा है कि तमिलों को इन पुस्तकों से निर्वाण नहीं मिल सकता। इसीलिए हम इन पुस्तकों को नष्ट करना चाहते हैं। हम ऐसा आंख मूंदकर नहीं कर रहे हैं। हमें पता है कि इसकी क्या क़ीमत हमें चुकानी पड़ेगी। लेकिन इसके बावजूद, हम अपना सब कुछ खोकर भी इन पुस्तकों को नष्ट करना चाहते हैं।

हम किसी भी तरह का गम्भीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार हैं। हम अपना बहुमूल्य जीवन भी इसके लिए न्योछावर करने को तैयार हैं। इसके लिए हम किसी भी तरह की मुश्किलें सहने के लिए तैयार हैं। हम दूसरों की तरह नहीं हैं, जो इतने मूर्ख हैं कि अपना धार्मिक प्रचार करते रहने के लिए मिलने वाले अंध समर्थन से संतुष्ट हो जाते हैं। हम जानते हैं कि हम चिंतारहित ज़िंदगी जीते हुए आसानी से प्रसिद्धि पा सकते हैं। पिछले 18 सालों से हमारे भाषण और हमारे कृत्य अमूमन वही रहे हैं। वो जो हमारे ऊपर नज़र रख रहे हैं और हमारी क्रियाकलापों के बारे में जानकारी रख रहे हैं उनको कुछ भी नया नहीं दिखेगा। हम हमेशा से एक ही तरह की नीति पर क़ायम रहे हैं। शायद एक-आध ऐसे लोग हैं जो हमारे आदर्शों के प्रति ग़लत धारणा रखते हैं। वे विचलित हो सकते हैं और उन्हें ग़ुस्सा तक आ सकता है।

कोई भी व्यक्ति जो सार्वजनिक गतिविधियों में शामिल होता है, वह ऐसा कुछ करता ही है जिसे वह सही और अच्छा समझता है। ऐसे व्यक्ति को कम से कम हमारी महिलाओं को सही रास्ता दिखाना चाहिए। जहां तक हमारी बात है, एक सच्चे सुधारवादी की क्या गति होती है, इसका हमें पता है। ज्ञानियों को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, हम यह जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि अपनी वास्तविक सेवाओं को लोग कितना महत्व देते हैं।

मैं सामाजिक कार्यों में राजनीति को घसीटना नहीं चाहता। मैं यहां एक सुधारवादी के रूप में बात कर रहा हूं, किसी नेता की तरह नहीं। मैं स्वराज (आज़ादी) के प्रति बहुत ज़्यादा अनुरक्त नहीं हूं। मैं इसे बहुत ज़्यादा महत्व नहीं देता। मेरा लक्ष्य यह निर्णय करना है कि हमें स्वराज चाहिए या स्वाभिमान का राज। जो तमिलों की वर्तमान स्थिति के प्रति चिंतित हैं, उनको ये किताबें अवश्य ही हमारे हितों के ख़िलाफ़ लगेंगी। सच्चा तमिल इन पुस्तकों को ज़हर समझेगा। अब आप लोग देखिए कि श्री मराईमलाई अडिगल ने क्या कहा है। तमिल विद्वानों में उनका स्थान अद्वितीय है। कम्ब रामायण के बारे में उनके विचारों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह अलग बात है कि उनके साथ हमारे कई मुद्दों पर मतभेद हैं। अदिगलार की आज प्रशंसा होती है और तमिल विद्वान और पंडित उनको बहुत ही इज़्ज़त की दृष्टि से देखते हैं। अब यह देखिए कि उन्होंने क्या लिखा है :

“कुछ तमिल कवि आर्यों के झूठे प्रचार पर काफ़ी मोहित हो गए। इसलिए इन लोगों ने हर तरह की अविश्वसनीय बातों को लेकर भारतम और रामायणम की रचना की। इन लोगों ने उन लोगों के बीच अपनी कृतियों को ज़्यादा प्रसिद्ध बनाया जो आर्यों की प्रशंसा करते थे”।

“पेरूम देवनार ने तमिल में भारतम की रचना की और अब यह असंगत हो चुका है”।

“भारतम अविश्वसनीय बातों का संग्रह है। तमिल के प्राचीन लेखक आर्यों की भाषा में लिखी रामायणम का अनुवाद नहीं कर पाए क्योंकि यह असंगत बातों से भरी हुई है”।    

कवि कंबर ने जो रामायण लिखी है, वह आर्यों की भाषा संस्कृत में लिखी रामायण की नक़ल है। चूंकि कंबर ने जो रामायण लिखी उसमें कई अविश्वसनीय बातें थीं और इसीलिए बाद के तमिल विद्वानों को यह पसंद नहीं आया।

चूंकि कंबर ने एक झूठी कहानी लिखी, और चूंकि कंबर ऐसी भाषा और संस्कृति के आदी थे, इसलिए कंबर ने इन अपनी संस्कृति के बाहर की इन बातों को स्वीकार कर इसको मानने का दुस्साहस किया और अपनी कृतियों में झूठ भर दिया।

जैसा कि स्वाभाविक है, बाद के समय के कवियों ने भी लोगों को ठगने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा। इसके लिए उन्होंने  तमिल में इन कृतियों को अनूदित किया है और इसे दुबारा गढ़ा है। इस तरह, उन्होंने प्राचीन तमिल गौरव को नष्ट किया है।

यह सही है कि तर्जुमा में कई जगह पर साहित्यिक छटा दिखती है। ये शुरू से अंत तक झूठ पर टिके हैं, और लोग भ्रमित हैं। वे सच और झूठ में फ़र्क़ कर पाने में विफल हैं।

विदेशी भाषाओं में बहुत ही सुंदर काल्पनिक कहानियां लिखी गई हैं, ख़ासकर अंग्रेज़ी भाषा में जिसे सभ्य लोगों की भाषाओं में गिना जाता है। ऐसी बहुत सारी कहानियां हैं जो पूर्णतः झूठ पर ही आधारित हैं। ये झूठी कहानियाँ काव्य रूप में भी मौजूद हैं। इस तरह की कहानियों की बाढ़ आई हुई है। पर उन भाषाओं के विद्वानों की इस बारे में क्या राय है? वे विशेष रूप से यह कहते हैं कि इस तरह की कहानियां पूरी तरह काल्पनिक हैं। कहानियों की इन पुस्तकों के लेखक घोषणा करते हैं कि उन्होंने जो लिखा है वे सच्ची कहानियां नहीं हैं। वे इस बात को खुलेआम स्वीकार करते हैं कि ये पुस्तकें सिर्फ़ मज़े के लिए पढ़ने की हैं। इसलिए इन्हें पढ़ने में कोई नुक़सान नहीं है। आधुनिक तमिल विद्वान जिन्होंने शोध किया है इस बारे में निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। उनका कहना है कि प्राचीन साहित्यों में फ़ालतू की बातें शामिल हैं। उन्होंने इसकी पूरी सूची बनाई है कि इनमें क्या असत्य है और क्या काल्पनिक। उनका कहना है कि इन्हें बिना किसी तार्किक ज्ञान के लिखा गया है।

इन कहानियों को सच्ची कहानी के रूप में प्रस्तुत करना भयानक भूल है। अगर लोगों को इन पर विश्वास करने के लिए बाध्य किया गया तो इससे उनके दिमाग़ का विकास बाधित होगा। सत्य हमेशा ही सत्य होता है। असत्य लम्बे समय तक सत्य के रूप में नहीं टिक सकता है।

ऐसे तमिल पंडित जो काल्पनिक साहित्य को सत्य मानते हैं, उन्होंने अपनी बुद्धि और न्याय के अहसास और औचित्य को गिरवी रख दिया है।     

लॉ कॉलेज, मद्रास में कंबर रामायण पर हुई बहस में ज्ञानी तमिल विद्वान श्री आर. पी. सेतुपिल्लै ने कथित रूप से कहा कि लंका का राजा रावण आर्य था। मैं इस बारे में अख़बारों में पढ़ता हूं। दुनिया जानती है कि रावण को इस ग्रंथ में हर जगह थेन्नईलंगई वेंदन (श्रीलंका का राजा) कहा गया है।

आर्य किस अवधि के दौरान भारत आए इस बारे में इतिहासकार और शोधकर्ताओं ने बहुत पहले ही पता लगा लिया था। उनका मत है कि द्रविड़ या तमिल इस देश के, विशेषकर दक्षिण भारत के मूल निवासी हैं। इस बात के कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं कि किसी आर्य ने तमिलों या श्रीलंका पर कभी राज किया हो।

सिर्फ़ इसलिए कि रावण ने वेदों को पढ़ा था और शिव की पूजा की थी,  श्री आर. पी. सेतुपिल्लै यह निष्कर्ष निकालते हैं कि रावण आर्य था। इसके प्रमाण के रूप में वे वाल्मीकि को उद्धृत करते हैं। वह इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि शोधकर्ताओं और इतिहासकारों ने इस तथ्य की काफ़ी जांच पड़ताल की है।

वाल्मीकि और कंबर दोनों ने ही रावण के कई गुण गिनाए हैं।

ऐसा माना जाता है कि रावण साढ़े तीन करोड़ वर्ष पहले पैदा हुआ था। ऐसा माना जाता है कि वह ‘पुलस्थि’ वर्ग का था। यह भी कहा जाता है कि वह इतना ताक़तवर था कि पृथ्वी को अपने कंधे पर उठाकर चल सकता था। उसके बारे में ऐसी ही और कई बातें प्रसिद्ध हैं।

इसके बावजूद कि वाल्मीकि और कंबर ने यह बातें कही हैं, यह भी कहा जाता है कि उसने वेदों को पढ़ा और उत्तरी क्षेत्र की भाषा संस्कृत में बात करता था। यह जानकर वास्तव में दुःख होता है कि श्री आर. पी. सेतुपिल्लै सिर्फ़ पुराणों के आधार पर किसी बात को स्थापित करना चाहते हैं। वे इन बातों पर एक शोधकर्ता के दिमाग़ या तार्किक तरीक़े से नहीं सोचते हैं। राम के आने से पहले ही दक्षिण में वेदों का प्रसार कैसे सम्भव है? उत्तरी क्षेत्र की भाषा का यहां प्रसार होना कैसे सम्भव है? इसके अलावा, अगर रावण आर्य था, तो फिर उसको सीता के साथ इस तरह का व्यवहार करने की ज़रूरत क्या थी? राम को यह घोषणा करने की ज़रूरत क्या थी की वह सिर्फ़ रावण को मारने के लिए यहां आया है?

अगर हम इन बातों पर ग़ौर करें, तो यह स्पष्ट होता है कि रावण आर्य नहीं था।

हमारे कुछ तमिल विद्वानों के भाषण और उनके व्यवहार हमारे हितों के ख़िलाफ़ हैं। वे इस तरह का बर्ताव करते हैं जैसे लगता है कि वे तमिलों के दुश्मन हैं।

मुझे तमिल विद्वानों की आलोचना करने में आनंद नहीं मिलता है। पर उन्होंने जो अज्ञानतापूर्ण काम किया है उसके लिए अगर मैं उनकी आलोचना नहीं करूं तो फिर क्या करूं? लोग यह निर्णय करें कि ये लोग प्रशंसा के योग्य हैं कि नहीं।

आर्यों ने लिखा है कि राम आर्य था। वे इस बात को मानते हैं कि यह आर्यों की कहानी है। उनका कहना है कि ऐसा राम को भगवान बनाने के लिए लिखा गया। बाद में, तमिल लेखकों ने इन सभी बातों को पूरी तरह उठाते हुए राम के और अनेक विलक्षण गुण गढ़ डाले। रामायण को बनाए रखने के लिए उन्होंने काफ़ी प्रयास किए। उन्होंने इसमें बकवासों की भरमार कर दी और लोगों के सामने इसे यह कह कर परोस दिया कि इस सत्य में कोई घालमेल नहीं किया गया है।

इस तरह के लोगों को हम कैसे महान और ईमानदार या आदर के योग्य मानें? इन्हें देशभक्त कैसे माना जा सकता है?

क्या आपने किसी आर्य को हमारे किसी तमिल पुस्तक का अनुवाद करते हुए देखा है? क्या उन्होंने कभी किसी तमिल पुस्तक की प्रशंसा की है? कृपा करके इस बारे में सोचिए कि वे ऐसे क्यों हैं। हमें कैसा होना चाहिए? क्या हमारे अंदर स्वाभिमान नहीं होना चाहिए? क्यों हमारे रावण को हमेशा ही नीच और ख़राब दिखाया जाए?

आर्य साहित्य से घृणा करें   

ऐसा इसलिए क्योंकि इन पुराणों (पौराणिक कथाओं) और इतिहासों (महाकाव्यों) के कारण हमें आर्यों का दास बनाया गया है। मुसलमान और ईसाई आज आर्यों के दास नहीं हैं। ऐसा क्यों? क्या इसलिए नहीं कि ये लोग इन पुस्तकों से घृणा करते हैं? यह ऐतिहासिक तथ्य है। हम देखते हैं कि लोग आर्यों और उनके आर्यवाद की निंदा करते हैं। पर कितने लोग अपने जीवन में आर्यों के ख़िलाफ़ हैं? हम व्यावहारिक नहीं हैं और हम जो कहते हैं उस पर अमल नहीं करते। रामायण और पेरिया पुराणम के प्रति हम जिस तरह का आदर भाव रखते हैं वह इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि हमारे चरित्र में ही दासवृत्ति है। मैं सिर्फ़ इतना कहूँगा कि वास्तव में, हम अपनी द्रविड़ संस्कृति और तमिल भाषा के प्रति ज़्यादा जागरूक नहीं हैं।

कम से कम हम रामायण के बारे में साक्ष्य तो जुटा ही सकते हैं। इतिहासकार आर्य, उनकी सभ्यता और ख़ानाबदोश के रूप में उनके भारत आने के बारे में बात करते हैं। इसी तरह, इतिहासकारों ने द्रविडों और उनकी सभ्यता के बारे में तथ्यों का संग्रह किया है। लेकिन पेरिया पुराणम के बारे में और उसकी कहानियों को लेकर ऐसा नहीं किया गया है।

पेरिया पुराणम  

किसी ने गाथा गाई!

यह ईश्वर के ही मुख से निकला!

एक रश्मि पुंज था!

और दर्पण का वह प्रतिबिम्ब

सद्यह मानुष बन सामने आ खड़ा हुआ!

तीन वर्ष का वह अबोध लगा गाने !

पाषाण हुआ प्लावित जल में!

सिर्फ़ भभूत से ठीक हुआ ज्वर!

ख़ुद ही खुल गए द्वार!

लोमड़ियाँ बन गईं अश्व!

और सिर्फ़ एक हड्डी से ही, बन गई बाला!

एक बालक को मगरमच्छ ने लिया निगल पर वह बाहर जीवित निकला!

पेरिया पुराणम में इस तरह की बेवक़ूफ़ियां भरी पड़ी हैं। कंडपुराणम में ऐसी क्या महानता छिपी है?

शुरुआत की पंक्तियों में ही थिलाई (चिदम्बरम) के मंदिर में ब्राह्मण पुजारियों का ज़िक्र आता है। शैव पंडित अन्य पुराणों की निंदा करते हैं। वे इसे बेहूदा बताते हैं। पर उनका ख़ुद का पेरिया पुराणम क्या है? ये तो वैसे ही हुआ कि एक शराबी दूसरे के शराब पीने की आदत की निंदा करे और ख़ुद पीने के लिए शराब की फ़रमाइश करे। ये शैव पंडित इस तरह से व्यवहार करते हैं जैसे इनके साहित्य में बेहूदगी भरी बातें हैं ही नहीं। क्या ये लोग आर्यों वाले गुणों से भरे नहीं लगते?

ईसाई धर्म में आपको बहुत ज़्यादा बेहूदगी की बातें नहीं मिलेंगी। इसमें दो या तीन बातें ऐसी हैं जिन पर आप विश्वास नहीं कर सकते। एक, कंवारी लड़की बच्चे को जन्म देती है! रोटी का एक छोटा टुकड़ा इतना ज़्यादा बन जाता है कि इससे हज़ारों लोग अपना पेट भर लेते हैं! मरे हुए लोग ज़िंदा हो जाते हैं। पर पश्चिम के देशों में इन कुछ अविश्वसनीय बातों को भी बर्दाश्त नहीं किया जाता।

बाइबिल का भी विरोध होता है। कई तरह के विवाद चल रहे हैं। धर्म को नहीं मानने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है।पर यहां, इस तरह की बेहूदा बातों की कमी नहीं है। हम कोई भी चीज़ उठाएं, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। कई बातें असंगत हैं, विवेकहीन हैं, और तर्क के परे हैं। अब अगर स्थिति ऐसी है, तो कब तक हमारे ईश्वर, हमारा धर्म और हमारे पुराण इस रूप में जीवित रह पाएंगे? अगर साधारण और अज्ञानी लोग ही इन पर विश्वास करते तो हम समझ सकते थे, पर हम देखते हैं कि पढ़े लिखे लोग भी पुराणों में श्रद्धा रखते हैं और इसका आदर करते हैं। इस दुःख को हम कैसे बर्दाश्त करें?

इसलिए मैं तमिल युवाओं से अपील करता हूं। अपने पतवार को तब तक सुस्त मत पड़ने दो जब तक कि इन पुस्तकों से जुड़ी मिथ्या अभिमान को समाप्त नहीं कर दिया जाता है। इसके लिए भले ही तुम्हें जो भी कष्ट सहना पड़े, साहसपूर्वक इनको नकारो। ये पुस्तकें तुम्हारे दिमाग़ के लिए दीमक की तरह हैं। अगर आप युवा लोग इस तरह की मूर्खतापूर्ण, घातक और अवांछित बातों को नहीं मानने का प्रण करोगे, तो आप तमिलनाडु और तमिलों की महान सेवा करोगे।

सिनेमा                 

कुछ शास्त्रों, पुराणों और इतिहासों को जलाने के अलावा भी कुछ महत्त्वपूर्ण काम हमारे पास है। और यह है सिनेमा के क्षेत्र में अत्याचार से मुक़ाबला करना। जिन कारणों से हम कुछ पुस्तकों को जलाना चाहते हैं वही कारण सिनेमा पर भी लागू होते हैं। पुस्तकों में जो भी पढ़ाया जाता है उसे सिनेमा में व्यावहारिक रूप से लागू किया जाता है।

हम देख सकते हैं कि पुरानी बातें बदल रही हैं और कई क्षेत्रों में नई व्यवस्था उसकी जगह ले रही है। दुनिया में हमें यही देखने को मिल रहा है। पर यहां हमें नई बातें देखने को मिल रही हैं और बदलाव को बहुत ही चालाकी से दबाया जा रहा है। फ़िल्म उद्योग में पुराने को बहुत ही बहुमूल्य सोना माना जाता है। हमारा सिनेमा अधिकांशतः अंध विश्वास, मूर्खता और बर्बरता पर आधारित है। न तो कलाकार और न ही निर्माता फ़िल्म देखने वालों की चिंता करते हैं।

एक वेश्या या एक चोर आम लोगों के हितों की चिंता नहीं करता। अभिनेता और निर्माता भी वैसे ही हैं। उनके कार्य समाजविरोधी होते हैं। ये लोग किसी भी तरह अपने निजी हितों की रक्षा करना चाहते हैं। वे किसी भी तरह सुख से जीना चाहते हैं।

इस तरह के असामाजिक तत्वों की पश्चिमी समाज में बहुत ही कमी होती जा रही है। पर यहां उनकी संख्या बढ़ रही है।

हिंदी-विरोधी आंदोलन के दौरान महिलाओं सहित 1500 स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं ने तमिल भाषा को बचाने के लिए अपनी गिरफ़्तारियां दी। इस आंदोलन का एक अच्छा प्रभाव यह हुआ कि हमारे लोगों में तमिल संगीत सुनने की ललक बढ़ी। तमिल संगीत आंदोलन के प्रोत्साहन के लिए कई अमीर लोग स्वेच्छा से धन देने के लिए सामने आए। इन निर्लज्ज अभिनेताओं और शर्मनाक निर्माताओं को उखाड़ फेंकने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा। हमें सिर्फ़ इनके ख़िलाफ़ आंदोलन करते रहना है। अगर 5000 लोग भी जेल जाने को तैयार हैं, तो यह काफ़ी होगा। ऐसी बहुत सारी बातें हैं जो हमें करनी हैं। और इन बहुत सारी बातों में एक यह भी है।

पश्चिमी देशों में नाटकों और फ़िल्मों में नवजागरण को दिखाया जाता है। पर हमारे देश में धर्म, पुराणों और ईश्वरों के नाम पर कई अविश्वसनीय बातें हो रही हैं। यहां तक कि सरकार भी इसमें शामिल है। जिन बातों को त्यागना चाहिए, जिससे घृणा करनी चाहिए और जिसको अस्वीकार करना चाहिए वे हमारे ऊपर राज कर रही हैं। आप किसी को भी इस बारे में चिंता ज़ाहिर करते हुए नहीं पाएंगे।

क्या समाज को सुधारने और देश का भला करने के बारे में सिर्फ़ चिकनी चुपड़ी बातें करना ही काफ़ी है? क्या देश के कल्याण के लिए लोगों से सिर्फ़ चरख़ा चलाने को कह देने भर से ही हो जाएगा? क्या सिर्फ़ लोगों को खादी पहनने के लिए कह देने भर से देश का कल्याण हो जाएगा?

क्या हमें योजनाबद्ध तरीक़े से काम नहीं करना चाहिए? हमें काम रचनात्मक तरीक़े से करना चाहिए। सिर्फ़ भाषण को ज़्यादा महत्व देने और कुछ भी महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं करने से बेईमान लोगों को नेता और प्रमुख व्यक्ति बनकर उभरने में मदद मिली है। वे ख़ुद को इस देश के बड़े नेता और राजनीतिक व्यक्ति के रूप में बहुप्रचारित करते घूमते हैं।

इसलिए, मैं युवाओं से अपील करता हूं कि वे वर्तमान हालात के बारे में सोचें और अपने दायित्वों को समझें। यहां तक कि हमारी महिलाओं को भी किसी भी बात की परवाह किए बिना सामने आना चाहिए। देश के लुटे हुए स्वाभिमान को वापस लाने के लिए, कम से कम कुछ लोगों को किसी भी तरह का अपमान सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। क्या आपने लोगों को अपने पेट के लिए अनैतिक कार्य करते हुए नहीं देखा है? इसलिए अपने खोए हुए सम्मान और गौरव को किसी भी क़ीमत पर वापस प्राप्त करने के लिए कोई निर्णय लीजिए। अगर आप किसी का भला कर सकते हैं तो उसे करने में हिचकें नहीं।

ज़रा नैतिक मूल्यों के महान उपदेशकर्ता वल्लुवर ने आत्मसम्मान के बारे में जो कहा है उसको याद करें। वे हमें चेतावनी देते हैं कि अगर हम अपने ही सम्मान और स्टेटस की चिंता नहीं करते हैं, तो हम एक बड़े बदलाव का रास्ता रोकते हैं। अपने सम्मान और गौरव के लिए लोगों को अपने जान तक की बाज़ी लगाने के लिए तैयार रहना चाहिए। पर मैं यह सब क्यों कह रहा हूं। जो लोग स्वाभिमान को महत्व देते हैं वे अपना मान और आदर खो जाने का ख़तरा नहीं उठा सकते।

हमारे देश में साम्यवाद की जितनी भी बातें हो रही हैं, वे बकवास हैं। हमारे युवाओं को इन बातों से दूर रहना चाहिए। वे कौन सा काम करते हैं? उनकी नज़रें हमेशा ही जस्टिस पार्टी के नेताओं पर टिकी रहती हैं। उनका काम मुसलमानों और धनी लोगों की निंदा करना है। वे जातिवाद की दुष्टता और प्रतिक्रियावादी गांधी के दुष्प्रचार के कुप्रभावों के प्रति चिंतित नहीं लगते। वे उस राजाजी के प्रति चिंतित नहीं हैं जिनकी चिंता सिर्फ़ यह है कि ब्राह्मण कैसे सुख से जीवित रहेंगे। वे उस कांग्रेस पार्टी के बारे में चिंतित नहीं हैं, जो वर्णाश्रम धर्म को सही ठहराती है। वे उस खादी के प्रति चिंतित नहीं हैं, जो बर्बर युग का प्रतीक है।

साम्यवादियों में उन बुरी ताक़तों का बोलबाला है जिनकी ऊपर चर्चा की गई है। इसलिए मैं युवाओं से अपील करता हूं कि वे साम्यवादियों से सावधान रहें। साम्यवाद, जैसी कि उसकी फ़ितरत है, यहां वह मिश्री घुला ज़हर है। इससे सावधान रहें!


(अनुवाद : अशोक झा, कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)

First published in Forward Press.

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