हमको नहीं दी कोई आज भी
कटा हाथ, करता है आर्तनाद जंगल में
आर्तनाद करता है कटा हाथ— गारो पहाड़ में
सिंधु की दिशाओं में करता है आर्तनाद कटा हाथ
कौन किसे समझाए और
लहरें समुद्र की, दिखातीं तुम्हें हड्डियाँ हज़ारों में
लहराते खेतों से उठ आतीं हड्डियाँ हज़ारों
गुम्बद और मन्दिर के शिखरों से, उग आतीं हड्डियाँ हज़ारों
आँखों तक आ जातीं, करतीं हैं आर्तनाद
सारे स्वर मिलकर फिर खो जाते जाने कहाँ
कंठहीन सारे स्वर
आर्तनाद करते हैं, खोजते हुए वे धड़,
शून्य थपथपाते हुए, खोजते हैं हृत्पिंड
पास आ अँगुलियों के
करती है आर्तनाद अंगुलियां
नाच देख ध्वंस का
पानी के भीतर या कि बर्फीली चोटियों पर
कौन किसे समझाए और
करते हैं आर्तनाद अर्थहीन शब्द
और सुनते हो तुम भौंचक
हमको नहीं दी कोई आज भी
हमको नहीं दी कोई आज भी
हमको नहीं दी कोई मातृभाषा देश ने ।
***
पत्थर
पत्थर, धरा है खुद मैंने यह छाती पर रोज़-रोज़
और अब उतार नहीं पाता ।
धिक् ! मेरी गलतियों, परे जाओ, उतरो
मैं फिर से शुरू करूँ,
फिर से खड़ा हूँ, जैसे खड़ा होता है आदमी ।
तैरते हुए दिन और हाथों के कोटर में लिपटी हैं रातें
क्योंकर उम्मीद है, समझ लेंगे दूसरे?
पूरी देह जुड़कर भी जगा सकी नहीं है कोई नवीनता ।
जन्महीन महाशून्य घेरे में,
बरसों तक पल-प्रतिपल
किसकी की पूजा?
अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो ।
चुपके-से कहता हूँ आज, तू उतर जा, उतर जा
पत्थर ! धरा था तुझे छाती पर,
मानकर देवता
अब मैं गया हूँ तुझे ठीक से पहचान !
शंख घोष बांग्ला और भारतीय कविता के अग्रणी और अप्रतिम कवी हैं. इन्हें १९७७ में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. ‘हमको नहीं दी कोई आज भी’ और ‘पत्थर’, हिंदी में उनके नए संग्रह ‘मेघ जैसा मनुष्य’ से ली गयीं हैं, जिसका अनुवाद प्रयाग शुक्ल जैसे वरिष्ठ कवि और समर्थ अनुवादक ने किया है.
यह कविताएं प्रयाग शुक्ल जी की अनुमति से यहाँ पुनः प्रकाशित की गयीं हैं .