• About Us
  • Contact Us
  • Copyright, Terms and Conditions
  • Events
  • Grievance Redressal Mechanism
  • Home
  • Login
Indian Cultural Forum
The Guftugu Collection
  • Features
    • Bol
    • Books
    • Free Verse
    • Ground Reality
    • Hum Sab Sahmat
    • Roundup
    • Sangama
    • Speaking Up
    • Waqt ki awaz
    • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • Videos
  • Resources
  • Contact Us
    • Grievance Redressal Mechanism
  • About Us
No Result
View All Result
  • Features
    • Bol
    • Books
    • Free Verse
    • Ground Reality
    • Hum Sab Sahmat
    • Roundup
    • Sangama
    • Speaking Up
    • Waqt ki awaz
    • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • Videos
  • Resources
  • Contact Us
    • Grievance Redressal Mechanism
  • About Us
No Result
View All Result
Indian Cultural Forum
No Result
View All Result
in Features, Speaking Up

अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ : अपने जीवनानुभवों के साथ ईमानदार बर्ताव की कविताएँ हैं

byICF Team
June 1, 2018
Share on FacebookShare on Twitter

अच्युतानंद मिश्र की छवि एक अच्छे कवि, गंभीर अध्येता और एक आलोचक की बनी है। इधर हमारी कविता में अनकहे की अनुपस्थिति बढ़ती जा रही है और सब कुछ कहने की विकलता बढ़ रही है।अच्युतानंद के बारे में मुझे एक उल्लेखनीय बात यह दीखती है कि उनकी कविता का बहुलांश अनकहे का स्पेस छोड़ता है। यह अनकहा ही उस मर्म को खोलता है, जिस तक ले जाना कवि का अभिप्रेत है। ऐसी उनकी बहुत सी छोटी -बड़ी कविताएं हैं,जिनमें यह स्पेस ज्यादा है। उदाहरण के लिए यह छोटी कविता देखें:

मेरी माँ अभी मरी नहीं है
उसकी सूखी ,झुलसी हुई छाती
और अपनी फटी हुई जेब
अक्सर मेरे सपने में आती है
मेरी नींंद उचट जाती है
मैं सोचने लगता हूँ
मुझे किसका खयाल करना चाहिए
किसके बारे में लिखनी चाहिए कविता।

क्या यह उस द्वंद्व की कविता है,जो कविता से आभासित होता है या कुछ और कहती है? यह माँ की सूखी, झुलसी हुई छाती और बेटे की फटी हुई जेब में अंतर्संबंध देखती है। यह कविता उतनी ही माँ की कविता भी है, जितनी बेटे की कविता है। यहाँ जो माँ है ,वह भी निरे काव्य नायक की माँ नहीं है। देश के अधिसंख्य साधारण लोगों की माँ है, और यह माँ के सूखे, जले स्तनों और बेटे की फटी जेब के बीच किसके बारे में लिखी जाए कविता, इस द्वंद्व को रेखांकित करते-करते, इस निर्णय की कविता भी है कि नहीं माँ के बारे में ही लिखनी है कविता। द्वंद्व की इस तकनीक को वह कई कविताओं में आजमाते हैं और अनकहे को कहने देते हैं:

मैं इसलिए लिख रहा हूँ
कि मेरे हाथ काट दिए जाएँ
मैं इसलिए लिख रहा हूँ
कि मेरे हाथ
तुम्हारे हाथों से मिलकर
उन हाथों को रोकें
जो इन्हें काटना चाहते हैं।

अच्युतानंद अक्सर सधी हुई भाषा में सधी हुई बात कहते हैं लेकिन असल बात है- बात कहना। कई बार सधे हुए ढँग से इतनी सधी हुई बात कही जाती है कि ढँग तो बहुत होता है मगर बात नहीं होती। अच्युतानंद के पास बहुत से मार्मिक क्षण और प्रसंग हैं लेकिन वह मार्मिकता को केवल कोमल रंगों से रंगने को उतावले नहीं हैं। उनके यहाँ धूसर रंग बहुत है और उनका यह चुनाव उनकी कविता को उल्लेखनीय बनाता है। चाहे वह मधुबनी से दिल्ली लौटी और मेट्रो में बैठी दो बहनों की कविता हो या बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं कविता।इन और अन्य कई कविताओं का धूसर परिदृश्य कवि के गहरे सामाजिक निहितार्थ को प्रकट करता है। एक गहरा सतत दुख उनकी कविता का लगातार पीछा करता है,जिसमें यह पार्श्व ध्वनि भी है: ‘कितने बरस लग गए थे जानने में/मुसहर किसी जाति को नहीं/ दुख को कहते हैं’। उनकी कविताएँ माँ, पिता, बहन,घर की स्मृतियों में खुबी हैं लेकिन शहर में रहने के द्वंद्व और अंतर्द्वन्द्व को भी साथ-साथ झेलती हैं, स्वीकारती हैं। गरीबी, अभाव और गहरी उदासी इनकी अपनी पहचान है और कुछ भी चमकदार कहने की आतुरता इनमें नहीं है। उस सामग्री से और उस काव्यात्मक संतुलन तथा संयम से-जो उनके पास है- कई बार वह चमक अपनेआप आ जाती है। वह कविता बनाने के लिए कुछ आयातित नहीं करते, अपने जीवनानुभवों के साथ ईमानदार बर्ताव उनकी कविताओं में बराबर नजर आता है।

अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ –

बीस बरस

उदास रौशनी के पार
एक जगमगाता शहर था
पानी के पुलों पर
थिरकते सपनों से भरी
चमकीली पुतलियाँ थी
अँधेरी रातों में सितारों भरे
घने आकाश की याद मौजूद थी.

रोज़ आती थी रेलगाड़ियाँ
उम्मीद की हर स्टेशन पर रूकती
मिनट दो मिनट
और इच्छाओं के फेरीवाले
आवाज़ देते

शहर पुकारते थे
बीस बरस पार से हमें
बस की खिड़कियों से
दिखता था भविष्य
ऊँची बिल्डिंगों की तरह

एक अदद सपना था कि
टूटता नहीं था
एक अदद रौशनी
जो बुझती नहीं थी
एक अदद उम्मीद
जो खत्म नहीं होती थी

किताबों के बीच दबी
बीस बरस पुराने पेड़ों
के सूखे पत्तों की तरह
प्रेमिकाएं, पिछले जन्म की याद
की तरह मुस्कुराती थी

वे मुस्कुराती थी हमारे सपनों में
हम बीस बरस पीछे चले जाते
शहर की उदास सड़कों से
तेज़ बहुत तेज़ रौशनी के
फुहारे छोड़ती गाड़ियाँ गुजर जाती

बीस बरस पुरानी
हरी घास सी याद
भविष्य के दुःस्वपन में
धू-धू कर जल उठती

चिंताएं बड़ी थी
कि समय का गुजरना
दुःख बड़ा था कि
दुःख से निकलना
हम जान नहीं पाते थे

अतीत एक डूबता द्वीप था
जिसके हर ओर यातनाओं का समुद्र लहराता
लहरों से पुकारता था भविष्य

एक चिड़ियाँ उड़जाती
हाथों में चुभ जाता था
निम्बू का कांटा
जुबान पर फ़ैल जाता था
दुःख के समुद्र का नमक
सिर्फ आकाश था
अनुभव के पार दूर तक

करीने से रखी गयी दुनिया में
हमें अपने हिस्से की तलाश थी
और जुलूस
और आन्दोलन
और घेराबंदी
सपनों की कोरों में
ढुलकते आंसू
सब एक डब्बे में बंद थे

हम नदियों के लिए उदास थे कि
पेड़ों के लिए
हम सड़कों के लिए उदास थे
या मैदानों के लिए
मालूम नहीं की तरह
दुनिया गोल थी

पगडण्डियों से निकलती सड़कें
और सड़कों से निकलते थे राजमार्ग
राजमार्ग से गुजरता था
एक अदद बूढ़ा
उसकी आँखों की पुतलियों में
चमकता था हमारा दुःख

एक रुलाई फूटती थी
और समूचे अतीत को
बहा ले जाती थी
एक हाथ टूटता और
बुहार ले जाता सारा साहस
एक कन्धा झुकता
और समेट लेता सारी उम्मीदें
एक शख्स मरता
और सपने आत्मदाह करने लगते

और अचानक रात के तीसरे पहर
कोई उल्लू चिहुंक उठता
पल भर के लिए
चुप हो जाते झींगुर
कोई कबूतर पंख फड़फडाता
हडबडाकर हम उठते ,
कहते गहरी नींद में
गुजारी रात हमने
सपनों से लहूलुहान
जिस्म का रक्त पोंछते
एक समूचे दिन को बिछाने लगते

धुंधली उम्मीद के चमकने तक
हम अपने फेफड़ों में भरपूर सांस भरते
और मुस्कुराते हुए करते
दिन की शुरुआत

बीस बरस बाद
बीस बरस के लिए
अगले बीस बरस तक

बिडम्बना

भार से अधिक लड़ना पड़ा हल्केपन से
अंधकार से उतनी शिकायत नहीं थी
रौशनी ने बंद कर रखा था हमारी आँखों को
सोचते हुए चुप होना पड़ता था
बोलते हुए बार बार देखना पड़ता था
उनके माथे की शिकन को
बेवजह मुस्कुराने की आदत का
असर ये हुआ कि
पिता की मृत्यु पर उस रात मैं घंटो हंसा
अपने बच्चे को नींद में मुस्कुराता देख
मैं फफक पड़ता हूँ
आखिर ये कौन सी बिडम्बना है
कि झूठ बोलने के लिए
सही शब्द ही आते हैं मुझ तक

दो बहनें

मेट्रो ट्रेन में बैठी हैं
दो बहनें
लौट रही हैं मधुबनी से

छोटी रास्ते भर
भोज की बातें कर रही है
दीदी माय सत्तर की हो गयी हैं
फिर भी आधा सेर चूड़ा-दही खींच लेती है
छोटी कहती है
बुधिया दीदी का बुढ़ापा देखा नहीं जाता
हाँ ,बड़ी आह भरकर कहती है
पिछले जन्म का ही पाप रहा होगा,
बुधिया दीदी का
आठ साल में गौना हुआ और अगले महीने ही
विधवा होकर नैहर लौट गयी

हकलाते हुए छोटी कुछ कहने को होती है
तभी बड़ी उसे रोकते हुए कहती है
नहीं छोटी, विधवा की देह नहीं
बस जली हुयी आत्मा होती है
वही छटपटाती है

छोटी को लगता है दीदी उसे नहीं
किसी और से कह रही है ये बाते
दीदी का मुंह देखकर
कैसा तो मन हो जाता है छोटी का

बात बदलते हुए कहती है
अब गांव के भोज में पहले सा सुख नहीं रहा
अनमनी सी होती हुयी
बड़ी सिर हिलाती है

छोटी के गोद में बैठे बच्चे को
प्यास लगी है शायद
थैली से वह निकालती है
पेप्सी की बोतल में भरा पानी
उसे बच्चे के मुंह में लगाती है
वह और रोने लगता है
आँखों ही आँखों में
बड़ी कुछ कहती है
एक चादर निकालती है

चादर से ढककर बच्चे का माथा
छोटी लगाती है उसके मुंह को अपने स्तनों से
बड़ी को जैसे कुछ याद आने लगता है

उसने यूँ ही छोटी को देखा है
माँ का स्तन मुंह में लेकर चुप होते हुए

उस याद से पहले की वह कौन सी धुंधली याद है
जो रह-रह कर कौंधती हैं
शायद उस वक्त माँ रो कर आई थी
लेकिन इस चलती हुयी मेट्रो में माँ का
रोता हुआ चेहरा क्यों याद आ रहा है
बड़ी नहीं बता सकती
लेकिन कुछ है उसके भीतर
जो रह- रहकर बाहर आना चाहता है

वह छिपाकर अपना रोना
छोटी की आँख में देखती है
वहां भी कुछ बूंदे हैं
जिन्हें वह सहेजना सीख रही है

छोटी दो बरस पहले ही आई है दिल्ली,
गौने के बाद
बच्चा दूध पीकर सो गया है

अचानक कुछ सोचते हुए
छोटी कहती है,
दीदी दिल्ली
अब पहले की तरह अच्छी नहीं लगती
लेकिन गावं में भी क्या बचा रह गया है
पूछती है बड़ी

अब दोनों चुप हैं
आगे को बढ़ रही है मेट्रो
लौटने की गंध पीछे छूट रही है

बड़ी कहती है, हिम्मत करो छोटी
बच्चे की तरफ देखकर कहती है ,
इसकी खातिर
दिल्ली में डर लगता है दीदी

बड़ी को लगता है
कोई बीस साल पीछे से आवाज़ दे रहा है
वह रुक जाती है
कहती है छोटी मेरे साथ चलो इस रास्ते से
लेकिन इन शब्दों के बीच बीस बरस हैं
अनायास बड़ी के मुंह से निकलता है
छोटी मेरे साथ चलो इस रास्ते से

अब रोकना मुश्किल है
बड़ी फफक पड़ती है
छोटी भी रो रही है
लेकिन बीस बरस पहले की तरह नहीं

इस वक्त ट्रेन को रुक जाना चाहिए
वक्त को भी
पृथ्वी को भी

ट्रेन का दरवाज़ा खुलता है
भीड़ के नरक में समा जाती हैं दो बहनें

बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं
(अमेरिकी युद्धों में मारे गए और यतीम बना दिए गये उन असंख्य बच्चों के नाम)

सच के छूने से पहले
झूठ ने निगल लिया उन्हें

नन्हें हाथ
जिन्हें खिलौनों से उलझना था
खेतों में बम के टुकड़े चुन रहें हैं

वे हँसतें हैं
और एक सुलगता हुआ
बम फूट जाता है

कितनी सहज है मृत्यु यहाँ
एक खिलौने की चाभी
टूटने से भी अधिक सहज
और जीवन, वह घूम रहा है
एक पहाड़ से रेतीले विस्तार की तरफ

धूल उड़ रही है

वे टेंट से बाहर निकलते हैं
युद्ध का अठ्ठासिवां दिन
और युद्ध की रफ़्तार
इतनी धीमी इतनी सुस्त
कि एक युग बीत गया

अब थोड़े से बच्चे
बचे रह गये हैं

फिर भी युद्ध लड़ा जायेगा
यह धर्म युद्ध है

बच्चे धर्म की तरफ हैं
और वे युद्ध की तरफ

सब एक दूसरे को मार देंगे
धर्म के खिलाफ खड़ा होगा युद्ध
और सिर्फ युद्ध जीतेगा

लेकिन तब तक
सिर्फ रात है यहाँ
कभी-कभी चमक उठता है आकाश
कभी-कभी रौशनी की एक फुहार
उनके बगल से गुजर जाती है
लेकिन रात और
पृथ्वी की सबसे भीषण रात
बारूद बर्फ और कीचड़ से लिथड़ी रात
और मृत्यु की असंख्य चीखों से भरी रात
पीप खून और मांस के लोथड़ो वाली रात
अब आकर लेती है

वे दर्द और अंधकार से लौटते हैं

मुसहर

गाँव से लौटते हुए
इस बार पिता ने सारा सामान
लदवा दिया
ठकवा मुसहर की पीठ पर

कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं।

बच्चे- 1

बच्चे जो कि चोर नहीं थे
चोरी करते हुए पकड़े गए
चोरी करना बुरी बात है
इस एहसास से वे महरूम थे

दरअसल अभी वे इतने
मासूम और पवित्र थे
कि भूखे रहने का
हुनर नहीं सीख पाए थे।

बच्चे -2

सड़क पर चलते हुए एक बच्चे ने घुमाकर
एक घर की तरफ पत्थर फेंका
एक घर की खिड़की का शीशा टूट गया
पुलिस की बेरहम पिटाई के बाद बच्चे ने कबूल किया
वह बेहद शर्मिंदा है-
उसका निशाना चूक गया।


 

First published in समकालीन जनमत .
कवि अच्युतानंद मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं और कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित हैं. टिप्पणीकार विष्णु नागर प्रसिद्ध कवि, कथाकार, संपादक और आलोचक हैं.)

Related Posts

“ढाई आखर प्रेम”: एक अनोखी पदयात्रा
Speaking Up

“ढाई आखर प्रेम”: एक अनोखी पदयात्रा

byNewsclick Report
Experience as a Muslim Student in a Different era
Speaking Up

Experience as a Muslim Student in a Different era

byS M A Kazmi
What’s Forced Dalit IITian To End His Life?
Speaking Up

What’s Forced Dalit IITian To End His Life?

byNikita Jain

About Us
© 2023 Indian Cultural Forum | Copyright, Terms & Conditions | Creative Commons LicenseThis work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License
No Result
View All Result
  • Features
  • Bol
  • Books
  • Free Verse
  • Ground Reality
  • Hum Sab Sahmat
  • Roundup
  • Sangama
  • Speaking Up
  • Waqt ki awaz
  • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • The Guftugu Collection
  • Videos
  • Resources
  • About Us
  • Contact Us
  • Grievance Redressal Mechanism

© 2023 Indian Cultural Forum | Creative Commons LicenseThis work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Create New Account!

Fill the forms bellow to register

All fields are required. Log In

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In