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स्मृति शेष संकलन: केदारनाथ सिंह स्वयं एक लम्बी कविता थे, कहानी छोड़ गए

byICF Team
March 22, 2018
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स्मृति शेष संकलन: केदारनाथ सिंह स्वयं एक लम्बी कविता थे, कहानी छोड़ गए

 

वो स्वयं एक लम्बी कविता थे. इक खूबसूरत तस्वीर थे. एक सुंदर कहानी थे. एक बेहतरीन शिक्षक थे. एक उम्दा इंसान थे. एक सजग नागरिक थे. एक मुकम्मल व्यक्ति  थे।

उनकी एक कविता है जो उन्होंने अपने निधन से 31 बरस पहले , 1978 में लिखी थी. उन्होंने इसका शीर्षक रखा था – मुक्ति. उन्होंने स्वयं की शारिरिक मुक्ति के पहले लिखी इस कविता में लगभग वो सारी बातें कह दीं जो उनके मरने के बाद भी नहीं मर पाएंगी , जिंदा रहेंगी सबके  ' परम मुक्ति ' तक. उनकी मुक्ति कविता है :

मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला 
मैं लिखने बैठ गया हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़'
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी'
'आदमी' 'आदमी' – मैं लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ / एक स्त्री का चेहरा
 मैं पूरी ताकत के साथ /शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
 यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
 मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
 यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
 मैं लिखना चाहता हूँ….

उनके शिष्यों में शामिल फिल्म पत्रकार अजय     ने कहा कि कविता पढ़ने  में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। खास कर निराला और जयशंकर प्रसाद को बड़े मनोयोग और भाव से उन्होंने समझाया। उनकी एक बात मैन गांठ बांध ली कि कविता को सही बल और ठहराव के साथ पढ़ा जाए तो वह अपना अर्थ खोल देती है। 

उनके एक शिष्य और कोलकाता विश्वविद्यालय  के प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी ने कहा , " गुरूवर केदारनाथ सिंह की मृत्यु मेरी निजी और सामाजिक क्षति है ‌। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा और उससे सारी जिंदगी बहुत बड़ी मदद मिली। मसलन्, उनका अपने छात्रों के प्रति समानतावादी नजरिया और कक्षा को गंभीर अकादमिक व्यवहार के रुप में देखने की दृष्टि उनसे मिली।यह निर्विवाद सत्य है कि कविता पढ़ाने वाला उनसे बेहतरीन शिक्षक हिंदी में नहीं हुआ। 

एक मर्तबा नामवर सिंह जी ने एमए द्वितीय सेमेस्टर में कक्षा में कविता पर बातें करते हमलोगों से पूछा कि आपको कौन शिक्षक कविता पढ़ाने के लिहाज से बेहतरीन लगता है,कक्षा में इस पर अनेक छात्रों ने नामवर जी को श्रेष्ठ शिक्षक माना, मैंने तेज स्वर में इसका प्रतिवाद किया और कहा कि केदारजी अद्वितीय काव्य शिक्षक हैं।इस पर मैंने तीन तर्क रखे, संयोग की बात थी कि गुरूवर नामवर जी मेरे तीनों तर्कों से सहमत थे और यह बात केदारजी को पता चली तो उन्होंने बुलाया और कॉफी पिलाई और पूछा नामवर जी के सामने मेरी इतनी प्रशंसा क्यों की ? मैंने कहा कि छात्र लोग चाटुकारिता कर रहे थे, वे गुरु प्रशंसा और काव्यालोचना का अंतर नहीं जानते, वे मात्र काव्य व्याख्या को समीक्षा समझते हैं,मैंने इन सबका प्रतिवाद किया था। इसी प्रसंग में यह बात कही कि आपकी काव्यालोचना छात्रों में कविता पढ़ने की ललक पैदा करती है।

 इसके विपरीत अध्यापकीय समालोचना काव्यबोध ही नष्ट कर देती है। केदारजी का सबसे मूल्यवान गुण था उनके अंदर का मानवाधिकार विवेक, कविता और मानवाधिकार के जटिल संबंध की जितनी बारीक समझ उनके यहां मिलती है वह हिंदी में विरल है। उल्लेखनीय है हिंदी काव्य में कई काव्य परंपराएं हैं,मसलन्, प्रगतिशील काव्यधारा, शीतयुद्धीय काव्य धारा,अति-वाम काव्य धारा, जनवादी काव्य धारा, आधुनिकतावादी काव्य धारा आदि।इन सब काव्य धाराओं में मानवाधिकार की समग्र समझ का अभाव है। यही वजह है कि केदारजी उपरोक्त किसी भी काव्यधारा से अपने को नहीं जोड़ते। हिंदी में लोकतंत्र के प्रति तदर्थवादी नजरिए से काफी कविता लिखी गयी है लेकिन गंभीरता से मानवाधिकारवादी नजरिए से बहुत कम कविता लिखी गयी है। यही बात उनको लोकतंत्र का सबसे बड़ा कवि बनाती है।यही वह बुनियाद है जहां से केदारनाथ सिंह के समग्र कवि व्यक्तित्व का निर्माण होता है। शीतयुद्धीय राजनीति , समाजवाद के आग्रहों और आधुनिकता के दवाबों से मुक्त होकर लोकतंत्र की आकांक्षाओं , मूल्यों और मानवाधिकारों से कविता को जोड़ना बडा काम है। वे हिंदी के कवियों में से एक  कवि नहीं हैं,बल्कि वे मानवाधिकारवादी कविता के सिरमौर हैं। आज के दौर में उनका जाना मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आंदोलन की सबसे बड़ी क्षति है।

प्रख्यात प्रो केदारनाथ सिंह ने कहा था कि उन्हें जेएनयू पर गर्व है और वह इसके लिए जो कुछ कहा जाए सुनने को तैयार हैं. इसके लिए उन्हें कोई देशद्रोही कहे या आतंकवादी..उन्होंने प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो परमानन्द श्रीवास्तव की स्मृति में 26 फरवरी 2016 , गोरखपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में जेएनयू का भी जिक्र किया। जेएनयू पर लगाए जा रहे आरापों से आहत प्रो केदार जी ने कहा कि जिस राष्ट्र के बारे में आज बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का बहुत योगदान है।

उनका कहना था , "सौभाग्य  से जेएनयू वाला हूं। जेएनयू का अध्यापक रहा हूं और आज भी हूं और इसके लिए जो कुछ कहा जाए सुनने को तैयार हूं। चाहे देश द्रोही या आतंकवादी। मुझे याद है कि 1984 में प्रो परमानन्द , जेएनयू में मेरे आवास पर ठहरे हुए थे। उस समय सिखों की हत्याएं हो रही थी लेकिन जेएनयू के आस-पास के इलाके में एक भी घटना नहीं हुई। जेएनयू के छात्रों ने आस-पास के इलाके में सुनिश्चित किया कि कोई घटना न हो। इसके लिए वे पूरी रात इस इलाके में घूमते। छात्र मुझे और परमानन्द जी को भी एक रात साथ ले गए। हम दोनों छात्रों के साथ घूमते रहे। जेएनयू के छात्रों ने यह काम किया था जिनको आज देश द्रोही कहा जा रहा है। जेएनयू के त्याग को समझना होगा। वे सभी समर्पित लोग हैं। किसी घटना को पूरे परिदृश्य में देखा जाना चाहिए।

आज जिस राष्ट्र के बारे में बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का योगदान है। वह राष्ट्र जिस रूप में आज दुनिया में जाना जाता है, उसका बिम्ब गढ़ने में जेएनयू का योगदान है। पढ़ा लिखा संसार जो भारत और उसके बौद्धिक गौरव को जानता है, उसको बनाने में जेएनयू का भी अंशदान है। नोम चोमस्की आज पूरे परिदृश्य में जेएनयू को याद कर रहे और आगाह कर रहे हैं कि जेएनयू के विरूद्ध कोई कार्य नहीं होना चाहिए तो वह बहुत बड़ा सर्टिफिकेट है। उनकी बात को ध्यान से सुना जाना चाहिए। नोम चोमस्की वह हैं जो सच को सच और झूठ को झूठ कहने का माद्दा रखते हैं। ऐसे लोग विरल होते जा रहे हैं। कभी यह काम ज्यां पाल सार्त्र करते थे। ये बौद्धिक हमारी मूलभूत चेतना के संरक्षक हैं। जेएनयू की बात आएगी तो चुप नहीं रह सकता। मुझे उससे जुड़े रहने पर गर्व है।

उनके शिष्य एवं हिंदी अधिकारी  उदय भान दूबे ने कहा ," डॉ के एन सिंह उर्फ केदार जी के दर्शन पहली बार 1980 में हुए। जेएनयू में एडमिशन के लिए इंटरव्यू के दौरान। उन्होंने मुझसे छायावाद पर प्रश्न किए थे और अंत में एक कविता सुनने के लिए कहा था।मैंने नागार्जुन की 'अकाल और उसके बाद' कविता  सुनाई थी।बड़े खुश हुए थे।मुझे लगा जैसे मैनें छक्का मार दिया हो।उसके बाद एम ए में उनसे कविताएं तथा एम फिल में तुलनात्मक साहित्य पढा। कविताओं में सरोज स्मृति,राम की शक्तिपूजा, कामायनी और शमशेर की कुछ कविताओं पर उनके व्याख्यान मन पर आज भी विद्यमान हैं,तरोताजा लगते हैं। तुलनात्मक साहित्य शायद उतना प्रभावी नहीं था।शायद इसीलिए उसकी कोई याद नहीं है।

गुरुदेव एक बार अलवर गए थे,एक काव्य गोष्ठी में भाग लेने।मुझको भी अपने साथ ले गए थे।मुझे फेलोशिप मिलती थी फिर भी उन्होंने मुझे एक पैसा खर्च नहीं करने दिया,बल्कि उल्टे जबरदस्ती मेरे पॉकेट में 100 रुपए डाल दिए थे,कुछ खर्च करने के लिए।

कभी प्रसंगवश यह बात उठी कि मैं गोपालगंज का हूँ।उन्होंने बताया कि उनके दामाद गोपालगंज कॉलेज में प्राध्यापक थे।एक बार उन्होंने पूछा कि घर कब जाना है।मैंने कोई तिथि बताई।उन्होंने कहा कि एक जरूरी सूचना बेटी के पास पहुंचनी है।तुम 2,3 दिन पहले जा सकते हो क्या।मैंने कहा कि क्यों नहीं।कोई असुविधा नहीं है।वे आने जाने के टिकट का पैसा देने लगे।मैंने कहा कि मुझे तो 2 दिन बाद अपने घर जाना ही है।आप क्यों पैसा दे रहे हैं।किंतु,नहीं माने।जबरदस्ती दोनों तरफ के किराए दे दिए।क्या करता,गुरू से झगड़ा तो नहीं कर सकता था। इस तरह की अनेक स्मृतियां हैं।उस समय की डायरी निकालने पर अनेक अच्छी बातें सामने आएगी। कभी बाद में यह कार्य करूंगा।ये कुछ बातें हैं जिनसे उनके एक अद्वितीय विद्वान, अनुपम शिक्षक और बेहतरीन इंसान होने की झलक मिलती है।गुरुदेव को सादर नमन. जेएनयू में फ्रेंच पढ़ी रेणु गुप्ता और अर्थशास्त्र पढ़े उनके पति जी वी रमन्ना ने उनके निधन पर दुख व्यक्त कर कहा कि वे एक महान कवि और शिक्षक थे.


 

First published in SabrangIndia.

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