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in Features, Speaking Up

महिलाओं के मसीहा: मोदी और पैड-मैन

byDeborah Grey
January 10, 2018
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महिलाओं के मसीहा: मोदी और पैड-मैन

 

आजकल खुद को महिलाओं का मसीहा कहलाने का चलन है. इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं हमारे प्रिय नेता प्रधान मंत्री मोदी जी, जो अपनी 56 इंच की छाती ठोंक कर दावा कर रहे हैं कि मुसलमान महिलाएं अब पुरुष अभिभावक के बिना हज पर जाने के लिए आज़ाद हैं. हालांकि सच्चाई यह है कि यह एक सुधारवादी बदलाव 2015 में ही सऊदी अरब सरकार द्वारा किया गया था, जिसने 45 वर्ष की आयु से अधिक महिलाओं के लिए यात्रा के नियमों को सुगम बना दिया है.

हज यात्रा के लिए आधिकारिक वेबसाइट पर प्रदर्शित नए नियमों के मुताबिक, "महिलाओं का महरम यानि किसी अपने घर के सदस्य के साथ हज की यात्रा करना आवश्यक है. रिश्तेदारी का सबूत आवेदन पत्र के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए. 45 वर्ष की आयु से अधिक किसी भी महिला को संगठित समूह के साथ महरम के बिना यात्रा करने की इजाज़त है, बशर्ते पहले तो उसका महरम रिश्तेदार उस नामित समूह के साथ हज यात्रा करने के लिए लिखित इजाज़त दे. फिर वह आज्ञा-पत्र नोटरी द्वारा प्रमाणित किया जाय. इसके अलावा, 45 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं को अभी भी किसी पुरुष अभिभावक के बिना हज पर जाना मना है. तो फिर सोचने वाली बात है कि जिन 1300 भारतीय महिलाओं को पुरुषों के बिना यात्रा करने की इस वर्ष अनुमति दी गई है क्या वे सभी 45 वर्ष से ऊपर हैं, और समूह में यात्रा कर रहीं हैं?

मोदी सरकार मुस्लिम महिलाओं को तत्काल तीन तलाक की कठिन समस्या से बचाने का श्रेय लेने का दावा कर रही है, जिसके कारण तमाम मुस्लिम महिलाओं, ख़ास कर के शायरा बानो की कड़ी मेहनत को नकारा जा रहा है, जो मूल याचिकाकर्ताओं में से एक थीं. जिनके प्रयास से सर्वोच्च न्यायालय ने अपना एतिहासिक फैसला अगस्त, 2017 में सुनाया था. हालांकि यह सच है कि मौजूदा सरकार ने एक बार में  (त्वरित) तीन तलाक को अपराधिक प्रावधान के तहत दण्डनीय अपराध बनाने का फैसला लिया है, ये भी उन मज़बूत इरादों की मुस्लमान महिलाओं के आन्दोलन बदौलत है. और तथ्य यह भी है कि इशरत बानो, इस मामले में अन्य याचिकाकर्ताओं में से एक भाजपा में शामिल हो गयी हैं,परन्तु उन महिलाओं के प्रयासों को कम नहीं आँका जा सकता है, जिनके दृढ़ संकल्प के कारण पितृसत्ता के खिलाफ यह कठिन लड़ाई लड़ी गई है.

इसी दौरान, अभिनेता अक्षय कुमार जो ‘पैडमैन’ नामक फिल्म में, एक स्व-घोषित 'सुपर नायक' का किरदार निभाने में व्यस्त हैं और जताया जा रहा है कि तात्पर्य 'पुरुषों' को 'माहवारी' में शामिल करना है. जबकि देश के अधिकांश हिस्सों में मासिक धर्म अभी भी एक निषिद्ध विषय है, अक्षय कुमार और उनकी फिल्म इस विषय पर खुली चर्चा शुरु करने का गलत दावा करती है. भूमाता ब्रिगेड जैसे नारीवादी समूह इस विषय पर वर्षों से न सिर्फ निर्भीक रूप से बोलते आए हैं बल्कि शनि शिंगणापुर जैसे मंदिरों के पवित्र स्थान में प्रवेश करने का अधिकारभी हासिल किया है.

इसके अलावा, अरुणाचलम मुरुगनथम, जो कि भारत में पहले मासिक धर्म के विषय पर काम करने वाले सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि के दक्षिण भारतीय थे. उन्होंने ग्रामीण महिलाओं के लिए कम लागत वाली सैनिटरी नैपकिन बनाने और वितरित करने के प्रयासों के कारण सामाजिक बहिष्कार और उपहास का सामना किया. जबकि अक्षय कुमार ने पैडमैन में 'ऊपरी' जाति के उत्तरी भारतीय लक्ष्मीकांत चौहान का किरदार निभाया है, जिससे मूल विचारों और दृढ़ता वाले पिछड़े वर्गों के अथक प्रयासों का श्रेय छीनने कि कोशिश की गयी है. दरअसल, ऐसी खबरें थीं कि तमिल सुपरस्टार धनुष निर्देशक बाल्की की अरुणाचलम की भूमिका निभाने के लिए मूल विकल्प थे, लेकिन अक्षय को ये किरदार निभाने के लिए कहा गया और फिल्म को पूरे देश में स्वीकृति मिले इसलिए चरित्र को एक उत्तर भारतीय बनाया गया था.

जबकि नारीवादी होने के लिए किसी को योनि की जरूरत नहीं है. पुरुष भी नारीवादी आंदोलन में शामिल होने के लिए आमंत्रित हैं. परंतु किसी भी महिला के नारीवादी सुधार के प्रयासों के लिए किसी भी पुरुष का श्रेय का दावा करना बेहद गिरा हुआ काम है. भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों के किये हुए उल्लेखनीय कार्यों का श्रेय 'ऊपरी' जाति के हिंदू पुरुष, जो भारतीय पहचान के लिए कथित 'डिफ़ॉल्ट सेटिंग' के मानकीकृत है, द्वारा हासिल करने का प्रयास करने उतना ही नीच कार्य होगा.


 

First published in SabrangIndia.

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