इस महीने महान अक्टूबर क्रांति को सौ साल हो जायेंगे . इस 100वीं वर्षगांठ पर आज हम कुछ प्रश्नों के साथ खड़े हैं, आज के युवा वर्ग के लिए अक्टूबर क्रांति के क्या मायने हैं? क्या युवा अब भी इस क्रांति और इसे बल देने वाली विचारधारा से कुछ सबक ले सकते हैं ? क्या 100 साल पहले हुई ये क्रांति आज के युवा के लिए महवपूर्ण हो सकती है ?
ये सभी सवाल बहुत से जनवादी और तरक्की पसंद लोगों के दिमाग में चल रहे हैं. खासतौर पर तब जबकि देश और दुनिया में लगातार दक्षिण पंथ का उभार देखा जा रहा है . इस समय ये सवाल हमारे बेचैन दिमाग से उठने इसीलिए भी लाज़मी है क्योंकि अक्टूबर क्रांति को जन्म देने वाली विचारधारा को ही आज अप्रासंगिक ठहराया जाने की कोशिशें की जा रही हैं . इसीलिए हमें यह समझना होगा कि अक्टूबर क्रांति थी क्या और उससे दुनिया पर क्या असर पड़ा .
दुनिया के इतिहास में दो सबसे बड़ी क्रांतियों का उल्लेख मिलता है, एक थी फ्रांस की क्रांति और दूसरी अक्टूबर क्रांति. फ्रांसीसी क्रांति ने पहली बार बराबरी और लोकतंत्र के विचार समाज में फैलाये. इस क्रांति ने यूरोप में सामन्ती व्यवस्था की जड़ें हिलाकर रख दीं पर सत्ता में वो एक नये शोषक वर्ग यानी पूंजीपति वर्ग को ले आयी. फ्रांस की क्रांति ने जो बराबरी का सपना अधूरा छोड़ा था उसे रुसी क्रांति यानी अक्टूबर क्रांति ने पूरा किया. अक्टूबर क्रांति इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने पहली बार शोषक वर्ग को न सिर्फ बदला बल्कि उसके राज को ही ध्वस्त कर दिया .अक्टूबर क्रांति ने पहली बार मेहनतकशों यानी मजूदूरों और किसानों की सरकार स्थापित कर ये दिखा दिया कि समानता का सपना अब बस किताबों तक ही सीमित नहीं है . महान क्रन्तिकारी लेनिन के नेतृत्व में मज़दूरों-किसानों की सरकार ने सत्ता में आते ही निजी सम्पत्ति को राज्य की सम्पत्ति घोषित कर दिया और जनकल्याण कार्यों में जुट गयी . इसके फलस्वरूप सोवियत राज्य ने कुछ ही सालों में ग़रीबी, बेरोज़गारी और भुखमरी को जड़ से ख़त्म कर दिया . साथ ही, महिलाओं को मर्दों के बराबर वेतन और मतदान का अधिकार मिला जो दुनिया में इससे पहले कहीं नहीं हुआ था , स्वास्थ सेवाओं को नि:शुल्क किया , 100% साक्षरता प्राप्त की और विज्ञान के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धियाँ भी हासिल करीं. मशहूर अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन के अनुसार 1913 से 1965 तक सोवियत यूनियन की प्रतिव्यक्ति आय दुनिया में सबसे ज़्यादा थी, यहाँ तक की जापान से भी ज़्यादा . इसके आलावा सोवियत संघ दुनिया का पहला राज्य था जिसने रोज़गार को अपने संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा दिया . यही वजह थी की 1936 तक वो दुनिया का पहला राष्ट्र बन गया था जहाँ बेरोज़गारी ख़त्म हो गई थी .
रविनन्द्रनाथ टैगोर जब 1930 में सोवियत संघ गए तो उन्होंने लिखा “अगर मैंने ये अपनी आखों से नहीं देखा होता तो मैं कभी यकीन नहीं करता कि सिर्फ 10 साल में इन्होंने हज़ारों लोगों को पतन और अज्ञानता से बाहर निकला है और न सिर्फ उन्हें पढना और लिखना सिखाया है बल्कि उनमें मानवीय गरिमा की भावना भी जगाई है . हमको यहाँ खासकर इनकी शिक्षा व्यवस्था को समझने के लिए आना चाहिए .”
सोवियत संघ की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक ये भी है कि उनसे मानवजाति को फासीवाद के ख़तरे से बचाया . सोवियत संघ ने ही हिटलर की फ़ौज को सीधी लड़ाई में शिकस्त दी जो इससे पहले कोई पूँजीवादी देश नहीं कर पाया था . सोवियत संघ के वजूद में आने के बाद दुनिया भर में समाजवादी क्रांतियों की लहर दौड़ पड़ी क्यूबा , वियतनाम , कोरिया और चीन सभी में समाजवादी सरकारें स्थापित हुई . इस क्रांति ने न सिर्फ समाजवाद के सपने को ज़िन्दा किया बल्कि तीसरी दुनिया के देशों में आज़ादी की उम्मीद भी जगायी. जिसके फलस्वरुप भारत और बाकी देश आज़ादी पाने में कामयाब हुए . इसी के बाद पूँजीवाद को अपनी सत्ता बचाने के लिए कल्याणकारी राज्यों की स्थापना करनी पड़ी .
दुनिया भर के युवा वर्ग के लिए बीसवीं सदी में समाजवाद का सपना हमेशा उम्मीद जगाता रहा था . क्यूबा में चे और फ़िदेल , विएतनाम में हो चि मिन, और बुर्किना फासो में थॉमस संकार ये सभी युवा क्रांतिकारी नहीं होते अगर अक्टूबर क्रांति ने राह नहीं दिखाई होती . 23 साल के चे जब लैटिन अमेरिका का सफ़र मोटरसाइकिल पर तय कर रहे थे तब उन्हें समाजवाद के इसी सपने ने क्यूबा की ओर रुख करने पर मजबूर किया था . हो चि मींच ने लेनिन के लेख पढ़कर ही ये कहा था कि वितनाम को भी यही रास्ता चुनना चाहिए .
20वीं सदी के भारत में युवाओं की चेतना पर भी इसने बहुत गहरी छाप छोड़ी थी . एम.एन. रॉय जो भारत के शुरुआती कम्युनिस्टों में से एक हैं , न सिर्फ भारतीय बल्कि मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के भी संस्थापक सदस्यों में एक थे . इसके अलावा उन्होंने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में भी अहम भूमिका निभाई थी . चटगांव विद्रोह (1930) के ज्यादातर युवा क्रांतिकारी जेल से निकलने के बाद कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े और तेभागा किसान विरोध ( 1946) में हिस्सेदार बने . इससे पहले ग़दर पार्टी के लोगों ने सोवियत रूस की सरकार से सीधा संवाद स्थापित किया और वहां हो रही कोमिन्टर्न की 1922 की कांफ्रेंस में हिस्सा लिया . जिसके बाद उन्होंने भारत आकर एक मार्क्सवादी अखबार “कीर्ति” छापना शुर किया जो पंजाब में बहुत प्रचलित हुआ . केरल में कुछ युवा कम्युनिस्ट कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ जुड़े और उन्होंने सामंती राज और ब्रिटिश राज दोनों के खिलाफ लड़ाई छेड दी . इनमें ईएमएस नम्बूदरीपाद , पी कृष्ण पिल्लई , के दामोदरन शामिल थे जिन्होंने आगे चलकार न सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी बनायी बल्कि दुनिया की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार भी स्थापित की .
भारत के सबसे महान युवा क्रान्तिकारी भगत सिंह पर भी इसका प्रभाव बहुत ही गहरा था . मार्क्सवाद ने उनपर कितनी गहरी छाप छोड़ी थी इस बात का अंदाज़ा उनके जेल नोट्स , और उनके द्वारा लिखी गयी बुकलेट “मै नास्तिक क्यों हूँ ’’ से लगाया जा सकता है . उनकी पार्टी का नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन रख देना समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाता है. भगत सिंह और उनके साथियों ने 12 जनवरी 1930 को लिखा , “लेनिन दिवस पर हमारी हार्दिक शुभकामनाएं उन सबके लिए , जो महान लेनिन के विचारों को आगे बढ़ाना चाहते हैं. हम उन सब के लिए सफलता की कामना करते हैं जो रूस के इस प्रयोग में शामिल हैं . हम अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के साथ अपनी आवाज़ जोड़ते हैं.”
इन सभी बातों से ये ज़ाहिर होता है कि भारतीय युवा चेतना पर समाजवाद और रुसी क्रांति का कितना प्रभाव रहा है. तो सवाल ये उठता है कि आज ये जज़्बा कहाँ गया? क्या समाजवाद में अब वो आकर्षण नहीं रहा जो युवाओं को अपनी ओर खींच सके? क्या समाजवाद और रुसी क्रांति अब बस इतिहास की बातें हैं ?
हमे समझना होगा कि 1990 के से बाद देश और दुनिया की राजनीति में काफी परिवर्तन आये हैं . 90 के दशक में भारत ने नव उदारवाद की नीतियों को पूरी तरह अपना लिया था और साथ ही यहाँ जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति का उभार हुआ .
जातीय और धर्म के सवालों ने वर्ग के सवालों को पीछे धकेल दिया और राजनीति जातियों की जोड तोड़ तक सीमित हो गई . इसके अलावा एक नया मध्यम वर्ग उभर कर आया जो कॉर्पोरेट की चमक दमक से बहुत प्रभावित था . इन बातों के अलावा समाजवादी आन्दोलनों ने भी अपनी पुराने तरीकों से निजात नहीं पायी जबकि पूँजीवाद ने बदलते हालातों के साथ जल्दी से खुदको ढाल लिया . 90 के दशक के बाद का एक बहुत बड़ा युवा तबका है जो कॉर्पोरेट मीडिया के द्वारा दिखाए गए सपने को सच मानता है . पर 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से ये सपना टूटता दिख रहा है जो की एक अच्छी बात है. यही वजह है कि 2011 का भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन हुआ और उसके बाद से युवाओं में बदलाव के लिए लगातार बेचैनी दिखाई पड़ रही है. ये बेचैनी मोदी सरकार की दमनकारी नीतियों के लागू होने के बाद से और भी ज्यादा बढ़ गयी है . JNU आन्दोलन , रोहित वेमुला की मौत के बाद का HCU आन्दोलन , ऊना आन्दोलन , भीम आर्मी का उभार और हाल में हुआ BHU आन्दोलन इसी और इशारा करता है कि युवाओं में व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा है . इसे दिशा प्रदान करने की ज़रुरत है .
जहाँ तक बात है समाजवादी विचारधारा की प्रासंगिकता की तो ये विचारधारा तब तक प्रासंगिक रहेगी जब तक समाज में शोषण रहेगा . रुसी क्रांति महान इसीलिए है क्योंकि इसने शोषण मुक्त समाज को स्थापित करने की कोशिश की थी और इसमें कुछ हद तक सफलता भी पाई थी. आज भारत में करोड़ों युवा बेरोज़गार हैं , 83% मजदूर 10,000 रूपये से भी कम कमाते हैं, किसान हजारों की तादाद में खुदकशी कर रहे हैं, जातिवाद अब भी कायम हैं , महिलाओं का शोषण अब भी जारी है , भुखमरी में हम पिछडे देशों को मात दे रहे हैं ,साम्प्रदायिकता का ज़हर अब खुद इस सरकार द्वारा घोला जा रहा है , शिक्षा और स्वास्थ्य अब मुनाफा कमाने का जरिया बन गए हैं . ये हालात ना पूँजीवाद की नाकामी दर्शाते हैं बल्कि उसके पतन की ओर भी इशारा करते हैं .
आज के युवा को समझाना होगा की समाजवाद ही इन स्थितियों को पलट सकता है. एक समाजवाद ही है जो इससे बेहतर समाज की कल्पना करता है , एक ऐसा समाज जहाँ एक इंसान के द्वारा दूसरे का शोषण ना होता हो . एक समाजवाद ही है जो क्रन्तिकारी तरीके से पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करने का रास्ता दिखाता है . युवाओं को समझाना होगा की चे और भगत सिंह सिर्फ टी शर्ट के आइकॉन नहीं हैं बल्कि उससे बहुत ज़्यादा कुछ हैं . हम जिस दिन उनके विचारों को समझने लगेंगे समाजवाद का सपना उसी दिन से वापस ज़िन्दा हो उठेगा .