बहाना कुछ भी करो
और जुनेद को मार डालो।
बहाना कुछ भी हो,जगह कोई भी
चलती ट्रेन हो,बस,सड़क,शौचालय या घर
नाम कुछ भी हो अख़लाक़,कॉमरेड जफ़र हुसैन या जुनेद
क्या फर्क पड़ता है
मकसद तो एक है
कि जुनेद को मार डालो!
ज़रुरी नहीं कि हर बार तुम ही जुनेद को मारो
तुम सिर्फ एक उन्माद पैदा करो,एक पागलपन
हत्यारे उनमें से अपने आप पैदा हो जायेंगे
और फिर,वो एक जुनेद तो क्या,हर जुनेद को
मार डालेंगे।
भीड़ हजारों की हो या लाखों की क्या फर्क पड़ता है
अंधे बहरों की भीड़ गवाही नहीं देती
हकला हकला कर उनमें से कोई कहेगा
कि हादसा बारह बजकर उन्नीस मिनिट पर हुआ
पर वो तो उस दिन ग्यारह बजकर अट्ठावन मिनट पर
घर चला गया था,उसने कुछ नहीं देखा
ये डरे हुए लोगों की भीड़ है
जानते हैं कि अगर निशानदेही करेंगे
तो वो भी मार दिये जायेंगे
जुनेद को मारना उनका मकसद नहीं
पर क्या करें तानाशाही की सड़क
बिना लाशों के नहीं बनती !
Read Manash Firaq Bhattachrjee’s poem for the late Hafiz Junaid here, and Prema Revathi’s poem here.