फिदेल कास्त्रो 90 वर्ष की उम्र में एक दीर्घ सक्रिय जीवन जीने के बाद २५ नवम्बर २०१६ को इस दुनिया से रुखसत ज़रूर हुए लेकिन वे करोड़ों – अरबों दिलों में हमेशा के लिए बसे रहेंगे। वे बेशक दुनिया के दूसरे सिरे पर मौजूद एक छोटे से देश के शासक थे लेकिन उन्होंने अनेक देशों की आज़ादी की लड़ाई में निर्णायक भूमिका निभायी और बेहतरीन मानवीय गुणों वाले मनुष्य समाज को बनाया। कहा जा सकता है कि अगर फिदेल न होते तो अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के अनेक देशों के मुक्ति संघर्षों का नतीजा बहुत अलग रहा होता। उनके निधन के उपरान्त इंदौर में उनके प्रशंसकों ने तय किया कि फिदेल की याद में कोई कार्यक्रम शोक या श्रद्धांजलि का नहीं किया जाएगा बल्कि उनकी याद में एक क्रांतिकारी जीवन का उत्सव मनाया जाएगा।
इसलिए ३ दिसम्बर २०१६ को इंदौर के सभी प्रगतिशील-जनवादी और वामपंथी संगठनों द्वारा फिदेल कास्त्रो की याद में "फिदेल कास्त्रो : एक क्रांतिकारी जीवन का उत्सव" कार्यक्रम आयोजित किया। अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया (एसयूसीआई), भारतीय जन नाट्य संघ, जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, मेहनतकश, रूपांकन और संदर्भ केंद्र का ये संयुक्त आयोजन हिदी साहित्य समिति सभागृह में किया गया। वक्ताओं में भी उनके नाम तय किये गए जो क्यूबा जा चुके हैं और अपनी नज़रों से क्यूबा देख चुके हैं। इंदौर में ऐसे दो ही नाम ढूंढें जा सके। एक अर्थशास्त्री डॉ. जया मेहता का जो १९९० के दशक में कुछ महीनों के लिए क्यूबा गईं थीं, एक बैंक अधिकारी यूनियन के प्रमुख राष्ट्रीय नेता आलोक खरे का जो कुछ वर्षों पहले ट्रेड यूनियन के अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में भाग लेने क्यूबा गए थे और एक भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया जो १९७० के दशक में पत्रकारों के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में भाग लेने क्यूबा गए थे।
कार्यक्रम की शुरुआत में फिदेल कास्त्रो और क्यूबा का संक्षिप्त परिचय देते हुए जया मेहता ने बताया कि फिदेल कास्त्रो का यूँ तो पूरा जीवन ही संघर्षपूर्ण था लेकिन मैं तीन संघर्षों को उनके सबसे बड़े संघर्ष मानती हूं। पहला संघर्ष जो उन्होंने अपने देश क्यूबा को बटिस्टा की तानाशाही से आजाद कराया। दूसरा संघर्ष था क्यूबा जैसे पिछड़े देश में में समाजवादी व्यवस्था और समाजवादी चेतना कायम करने का। उनका तीसरा सबसे बड़ा संघर्ष था कि जब ९० के दशक में सोवियत संघ का विघटन हो गया और पूर्वी योरप के देशों में समाजवादी व्यवस्थाएं ढह गईं तब बिना डगमगाए समाजवाद के परचम को क्यूबा ने थामे रखा।
डॉक्टर जया मेहता, आमिर और विक्की द्वारा अमेरिकी डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता सॉल लैंडो द्वारा फिदेल कास्त्रो पर बनाई हुई डॉक्यूमेंट्री "फिदेल १९७१" के चुने हुए हिस्से दिखाए। फिल्म के इन दृश्यों से फिदेल और उनके साथियों का क्रांतिकारी जीवन, क्यूबा की जनता के साथ उनका जीवंत संबंध, क्यूबा की जनता का संघर्ष, आजादी के बाद देश की समस्याएं और समाधान ढूंढने के जनवादी तरीके फिल्मों के इन टुकड़ों के माध्यम से दिखाए गए।
पहले दौर में क्यूबा को मुक्त कराने का संघर्ष भी एक हैरतअंगेज़ बहादुराना संघर्ष था जिसमें उनके पास न अधिक साथी थे और न ही अधिक संसाधन। फिर भी उन्होंने मुक्ति की अदम्य चाहत, विवेक संम्मत रणनीति और सजगता के साथ दृढ इच्छाशक्ति से जीत हासिल की। इसमें उन्हें हौसला और साथ हासिल हुआ सिएरा मेस्त्रा के गरीब किसानों का जिनका रक्त शोषण की आंच में सूख रहा था। उस गुरिल्ला लड़ाई और साथियों की याद फिल्म में फिदेल को भावुक कर देती है।
फिल्म दिखाने के साथ-साथ डॉ. जया मेहता ने बताया कि जब फिदेल ने बटिस्टा के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई छेड़ी तो उनके साथ मात्र ३०० साथी थे जबकि उनके खिलाफ 10 हज़ार हथियारबंद सेना थी। फिल्म में फिदेल कहते हैं कि हम क्यूबा की सिएरा मेस्त्रा पहाड़ों के जंगल में थे जिसका हम चप्पा चप्पा जानते थे। हमारा मोर्चा सुरक्षित जगह पर था लेकिन फिर भी हमें स्थानीय किसानों और गाइडों का सहारा लेना पड़ता था। कई बार ऐसा हुआ जब लोगों ने हमें धोखा दिया। पद और पैसों के लालच में हमारी जानकारी सीआईए को दे दी गयी। कई बार हम बाल-बाल बचे और कई बार हमारे साथी शहीद हुए। उन्होंने हवाई जहाज़ों से भी हम पर हमले किए। लेकिन हर मुठभेड़ ने हमें मज़बूत बनाया और कई बार बचने के बाद हमें ये भरोसा हो गया था कि अब हमें कोई नहीं हरा सकता।
फिदेल ने एक शोषक तानाशाह से अपने देश को मुक्त करवाकर एक अशिक्षित, अविकसित और संसाधनहीन देश की बागडोर संभाली। सन १९५९ में क्यूबा में क्रांति हुई और देश अमेरिकी साम्राज्यवादी तानाशाही और शोषण से आज़ाद हो गया, लेकिन ठीक अमेरिका के पीछे मौजूद क्यूबा में नयी व्यवस्था कैसे कायम की जाए, जो लोगों के लिए बेहतर ज़िन्दगी देने वाली हो, ये सवाल क्रांतिकारियों के लिए भी बहुत अहम् था। इसी सवाल से जूझते हुए फिदेल कास्त्रो इस नतीजे तक पहुंचे कि मनुष्य का सही विकास केवल समाजवादी सकता है, न कि पूँजीवाद में। जिस समाजवादी राष्ट्र का उन्होंने निर्माण किया उसमें उन्होंने जनवाद को समाज के निचले सिरे तक पहुंचाना सुनिश्चित किया। ये उनका दूसरा बड़ा संघर्ष था।
फिल्म में फिदेल लोगों से खूब मिलते-जुलते दिखते हैं। वे खुद भी कहते हैं कि बटिस्टा का तख्ता पलटने के बाद हमारे पास असल समस्या थी कि देश को कैसे चलाया जाए, लेकिन हमें भरोसा था कि हम कर लेंगे। फिदेल कहते हैं कि मेरे काम करने का तरीका ये है कि मैं दफ्तर में लगभग नहीं के बराबर रुकता हूँ और अक्सर गाँवों और बस्तियों में लोगों के पास जाता रहता हूँ। जनता से बेहतर आपको कोई अपनी समस्याएं नहीं समझा सकता और समस्याएँ ठीक से समझे बिना आप उनका सही समाधान नहीं ढूँढ़ सकते।
फिल्म में क्यूबा की क्रांति के १५ वर्ष पूरे होने पर फिदेल को क्यूबा के अपने देशवासियों को संबोधित करते दिखाया गया है। वे क्रांति की १५ वीं वर्षगाँठ को अपने साथी शहीद चे गुएवारा को समर्पित करते हुए सामने मौजूद लाखों की जनता से कैसे जोशीला संवाद स्थापित करते हैं, इसे लक्ष्य करके डॉ. जया मेहता ने फिदेल के बारे में चे गुएवारा की बात को साझा किया। चे कहते थे, 'फिदेल का जनता से जुड़ने का तरीका कोई तब तक नहीं समझ सकता जब तक उन्हें उस रूप में कोई देख न ले। वे जनता से इस तरह संवाद स्थापित करते हैं मानो किसी चिमटे की दो भुजाएं एक जैसे कम्पित हो रही हों, बिलकुल सम पर। ये कम्पन बढ़ता जाता है और चरम तक पहुँचता है जिसमे फिदेल उस संवाद को 'संघर्ष, इन्किलाब की जीत' की गर्जना से अचानक समाप्त करते हैं और वो जनता के भीतर बहुत देर तक झंकृत होता रहता है।'
तीसरे दौर का संघर्ष, जिसे 'मुश्किल दौर (difficult period)' कहा जाता है, 90 के दशक में शुरू हुआ। इस दौर में सोवियत संघ की सरकार गिर चुकी थी। सोवियत संघ से सभी विकासशील देशों को बहुत सहायता मिलती थी। सोवियत संघ के बिखरने से क्यूबा को भी बड़ा आघात पहुंचा। लेकिन फिदेल ने अपनी जनता से कहा कि इतिहास ने समाजवाद को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी हमें सौंपी है और हम इसे कामयाबी से निभाएंगे। और तमाम मुश्किलों के बाद भी पूरे क्यूबा को साथ लेकर समाजवाद की जिम्मेदारी को उन्होंने मजबूती से आगे बढ़ाया। फिदेल कास्त्रो ने अपनी मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से अपनी पूरी आबादी को साथ में लेकर उस 'मुश्किल दौर' को पार किया। क्यूबा बटिस्टा के जमाने से यानि 1960 के पहले से ही रासायनिक खेती और उत्पादन की पूंजीवादी पद्धतियों से चल रहा था। अमेरिकी कॉरपोरेटों के लिए गन्ने की खेती और शक्कर का उत्पादन ही उनकी एकमात्र आर्थिक और उत्पादन गतिविधि थी जो वो अपनी ही ज़मीनों पर गुलामों की तरह करते थे। क्रांति के बाद भी क्यूबा रासायनिक उर्वरक आधारित खेती से अपनी आर्थिक व्यवस्था चलाता था। ये फर्क ज़रूर आया था कि अब वो अपनी शक्कर अमेरिका के बजाय मित्र देश सोवियत संघ को बेचने लगा था जिसके उसे अच्छे दाम और अन्य अनेक सहयोग मिलते थे।
क्यूबा ईंधन के लिए पूरी तरह सोवियत संघ से प्राप्त होने वाले तेल पर आश्रित रहता था। सोवियत संघ के विघटन के बाद जब तेल और रासायनिक खाद की आपूर्ति मिलना बंद हो गई। लेकिन क्यूबा लड़खड़ाया नहीं क्योंकि क्यूबा की क्रांति तेल और बाहरी मदद पर आधारित नहीं थी, बल्कि क्यूबा की क्रांति समाजवाद के मूल्यों पर आधारित थी। अपने देश के लोगों की मदद से फिदेल कास्त्रो ने अपने समाज में आमूलचूल बदलाव लाकर भी समाजवाद को कायम रखा। उस वक्त फिदेल की उम्र करीब 65 साल रही होगी जब उन्होंने अपने नागरिकों को अपने देश को सन्देश दिया कि हम अब साइकिल चलाएंगे। रातोरात चीन से हजारों-लाखों साइकिल आयात की गई और 65 बरस की उम्र में खुद फिदेल कास्त्रो ने भी साइकिल चलाना सीखा। पूरा मुल्क मोटर- कारों को छोड़कर साइकिल पर आ गया।
क्यूबा की लगभग 99% खेती रासायनिक उर्वरकों पर आधारित थी। फिदेल कास्त्रो ने अपने वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि अब हमारे पास रासायनिक खाद का संकट है, और उनके वैज्ञानिको ने बमुश्किल पांच से 10 सालों के भीतर क्यूबा को जैविक खेती के क्षेत्र में दुनिया में अव्वल नंबर पर पहुंचा दिया।
क्यूबा की शिक्षा व्यवस्था, क्यूबा के डॉक्टर, क्यूबा की रिहायश व्यवस्था, क्यूबा की रोजगार व्यवस्था – यह सब मिलकर क्यूबा को क्यूबा बनाती हैं और फिदेल कास्त्रो को फिदेल कास्त्रो।
फिल्म में फिदेल कहते हैं जनता के पास अगर घर है तो उन्हें रोड चाहिए। रोड हैं तो उन्हें परिवहन चाहिए। परिवहन मिल गया तो उन्हें अस्पताल चाहिए, स्कूल चाहिये, वगैरह, वगैरह। इसलिए उनकी ज़रूरतों को समझने का बिना उनके पास जाए कोई विकल्प नहीं है। और ये काम लगातार होते रहना चाहिए
कार्यक्रम का सूत्र सञ्चालन करते हुए विनीत तिवारी ने फिल्म का एक दृश्यबंध दिखाते हुए कहा कि फिदेल के समाजवादी शासन – प्रशासन से क्यूबा की पूरी जनता खुश हो गयी हो, ऐसा नहीं था। जो मुट्ठी भर लोग बटिस्टा के शासन में लाभ उठा रहे थे, उनके मुताबिक तो फिदेल ने क्यूबा को नरक बना दिया था। फिदेल ने ज़मींदारों से ज़मीनें चाहें लीं और उन्हें भी खेतों में काम पर लगा दिया। फिल्म में ऐसे सुविधाभोगी लोगों के साक्षात्कार दिखाए गए जो क्यूबा छोड़कर अमेरिका में मियामी, फ्लोरिडा, और न्यू यॉर्क तरफ जाने आवेदन लेकर क़तार में खड़े हैं। उनसे पूछा गया कि क्यों जाना चाहते हैं आप क्यूबा छोड़कर तो वे कहते हैं, 'यहां तो हमारे बच्चों का भविष्य असुरक्षित है, यहां उन्हें क्रांतिकारी बातें सिखा रहे हैं।' एक कहता है, 'मैं अच्छा-खासा व्यापारी था। मुझे उन्होंने खेत में काम पर लगा दिया। देखिये काम करते करते मेरी नाक में चोट भी लग गयी।' फिल्म में बताया गया कि क्रांति के बाद क्यूबा में ये नियम बनाया गया कि अगर किसी को देश छोड़कर जाना है तो राष्ट्र निर्माण में श्रमदान करके बिना प्रमाण पत्र हासिल किये नहीं जा सकते हैं। ऐसे ही चंद सौ असंतुष्ट लोगों के ज़रिये दुनिया भर में फिदेल को बदनाम करने की कोशिश की गयी हालांकि वे अधिक कामयाब नहीं हुए। फिदेल का कहना था कि समाजवादी दुनिया में गैरबराबरी को जगह नहीं दी जा सकती।
फिल्म का अंतिम हिस्सा फिदेल कास्त्रो के अंतरराष्ट्रीयतावाद पर है। उल्लेखनीय है कि फिदेल ने अनेक पड़ोसी देशों को ही नहीं बल्कि अफ्रीका के भी अनेक देशों को मुक्ति संग्राम जारी रखने के लिए मदद की। फिदेल कास्त्रो ने अपनी लड़ाई को केवल एक देश की आजादी तक सीमित नहीं रखता उनका कहना था समूची मानवता सारी इंसानियत ही मेरा देश है इसलिए जहां कहीं भी शोषण और अन्याय के खिलाफ जनता लड़ रही थी वहां उन्होंने क्यूबा की ओर से मदद मुहैया कराई। ये मदद केवल आर्थिक ही नहीं थी, बल्कि क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण भी दिया और अपने सैनिक भी भेजे। कार्यक्रम में मंच पर लगे मुख्य बैनर पर भी यही सन्देश लिखा था – 'इंसानियत हमारा मुल्क है।' जया मेहता ने बताया कि केवल दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्यूबा ने अंगोला, अल्जीरिया, तंज़ानिया, इथियोपिया सहित अनेक देशों में भी क्यूबा के सैनिकों ने स्थानीय तानाशाह से निपटने में जनता और क्रांतिकारियों की मदद की। फिल्म में अफ्रीका के एक विशेषज्ञ अकादमिक विद्वान कहते हैं कि अगर फिदेल नहीं होते तो अफ्रीका का नक्शा बहुत अलग होता।
फिल्म का एक दृश्य है जहां दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के बाद नेल्सन मंडेला फिदेल को किसी अन्य देश में मिलते हैं और अपने कमरे में फिदेल का स्वागत कर कहते हैं – 'किसी भी और बात से पहले मैं यह जानना चाहता हूं कि आप हमारे दक्षिण अफ्रीका में कब आएंगे? दुनिया के तमाम देशों के नेता दक्षिण अफ्रीका आ रहे हैं और जिस देश की वजह से हम आजाद हैं, जिसने दक्षिण अफ्रीका की आजादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा साथ दिया, जो हमारा सबसे करीबी दोस्त है – फिदेल कास्त्रो। वो अब तक दक्षिण अफ्रीका नहीं आया। अब मैं और कुछ भी बात सुनने के पहले यही सुनना चाहता हूँ कि फिदेल कब दक्षिण अफ्रीका आओगे।' बहुत बार नेल्सन मंडेला का आग्रह सुनकर फिदेल कहते हैं, 'दक्षिण अफ्रीका भी मेरा देश है। मैं वहां जल्दी ही आऊंगा।' और उसके बाद फिदेल कास्त्रो दक्षिण अफ्रीका गए भी। जहां अफ्रीका के अन्य अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने उनका स्वागत किया।
ऐसे ही अनेक लैटिन अमेरिकी देशों के भीतर चल रहे मुक्तिसंग्रामों को भी क्यूबा ने हर तरह से मदद मुहैया कराई। वेनेजुएला की 21वीं सदी के समाजवाद की क्रांति के रचयिता ह्यूगो शावेज फिदेल कास्त्रो को दक्षिण अमेरिकी देशों का पितामह मानते थे। बोलीविया, इक्वाडोर, अल-साल्वाडोर, निकारागुआ, चिली जैसे अनेक देशों के क्रांतिकारियों ने फिदेल कास्त्रो, चे गुएवारा और क्यूबा की प्रेरणा और समर्थन से बहादुराना संघर्ष करे और जीते।
ट्रेड यूनियन नेता आलोक खरे इस मीटिंग में नहीं शामिल हो सके लेकिन भोपाल से आये वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदेनिया ने अपनी १९७० के दशक में एक पत्रकार सम्मलेन में भाग लेने के लिए की गयी क्यूबा यात्रा के संस्मरण सुनाये। उन्होंने बताया कि वे पत्रकारों के एक दल के साथ सम्मेलन के लिए क्यूबा गए थे। उस समय क्यूबा मास्को से होकर ही जाना होता था। हवाई जहाज का ईंधन खत्म हो गया था। हमारा ढाई सौ पत्रकारों का दल था जिसमें कई संपादक भी शामिल थे। हमें कहीं उतरने की अनुमति नहीं मिल रही थी। नामचीन संपादकों ने अमेरिका और ब्रिटेन सहित तमाम देशों के राष्ट्रपतियों से बात की तब जाकर हमें बरमूडा में उतरने की अनुमति मिली। वहां हमसे हमारे कैमरे ले लिए गए और हमें कह दिया गया कि खिड़की से बाहर भी नज़र मत डालिये वरना आपके साथ कुछ भी हो सकता है। वे लोग हमें खतरनाक समझ रहे थे क्योंकि हम क्यूबा जा रहे थे। यह खबर क्यूबा में भी पहुंच चुकी थी। जब हम क्यूबा उतरे तो वहां पर फिदेल कास्त्रो मौजूद थे। उन्होंने करीब आधा घंटे संबोधित किया। वहां 15 से 20000 लोगों का हुजूम था। हम 15 दिन क्यूबा में रहे। लगभग हर दिन वे कार्यक्रम स्थल पर आते थे। हालांकि उनकी सुरक्षा इतनी कड़ी थी कि कार्यक्रम का जो स्थान हमें बताया जाता था, वहां कार्यक्रम कभी भी नहीं होता था। ऐन वक़्त पर बदल दिया जाता था क्योंकि उनके पीछे सीआईए लगी हुई थी। यह उनकी सावधानी और लोगों का प्यार था कि वह बचे रहे। उन्होंने कहा कि फिदेल कास्त्रो को मारने के 664 से ज्यादा प्रयास अमेरिका द्वारा किए गए लेकिन सावधानी और अपने देशवासियों के प्यार और विश्वास के सहारे फिदेल कास्त्रो समाजवाद का परचम बुलंद किये रहे और साम्राज्यवाद की आँखों की किरकिरी बने रहे।
श्री हरदेनिया ने कहा कि क्यूबा के डॉक्टर पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है जहां भी कभी जरुरत हुई वहां के डॉक्टरों ने अपना सहयोग दिया चाहे वह अमेरिका में हो या पाकिस्तान में। सबसे ज़्यादा दुर्गम इलाकों और तूफानों, भूकंपों से पीड़ित लोगों के बीच सबसे पहले क्यूबा अपने डॉक्टर भेजता है। उन्होंने कहा कि क्यूबा की सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा खर्च करती है। यही कारण है कि वहां की यह दोनों सुविधाएं दुनिया के अनेक विकसित देशों से भी बेहतर है। दरअसल फिदेल मानते थे कि अगर लोग शारीरिक और मानसिक तौर पर स्वस्थ होंगे तभी वह तरक्की के मार्ग पर अग्रसर होंगे। हरदेनिया जी ने बताया कि फिदेल अपने हर भाषण से पहले अपने देश के पूर्वज जननायक-नायिकाओं को याद करते थे। भारत में, हमारे यहां आजकल कुछ ऐसा हो रहा है जैसे आज के नेताओं से पहले के नेताओं ने कुछ किया ही नहीं। बेशक नेहरू और गाँधी ने या अन्य पूर्ववर्ती नेताओं ने गलतियां भी की होंगी लेकिन हमारे प्रधानमंत्री उनके हर अच्छे बुरे को भूलकर ऐसे भाषण देते हैं मानो सबकुछ शून्य से उन्होंने ही शुरू किया हो। ये कृतघ्नता है और अच्छी बात नहीं है। हमें फिदेल कास्त्रो से सीखना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैं पूर्व पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखता लेकिन यह मेरी ख्वाहिश है कि अगर फिदेल का फिर से जन्म हो तो भारत में हो।
वरिष्ठ अधिवक्ता और इप्टा के संरक्षक समाजसेवी आनंद मोहन माथुर ने फिदेल के जीवन से प्रेरणा लेते हुए पूँजीवाद के खिलाफ आवाज उठाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि अमेरिका हो या भारत, दोनों ही जगहों पर पूँजीवादी सरकारें हैं जो सिर्फ अमीरों का भला चाहती हैं। फिदेल कास्त्रो के हर कदम के पीछे अपनी जनता के भले का उद्देश्य होता था और इन सरकारों का हर कदम जनता की मुसीबत बढ़ाने वाला और कॉर्पोरेट को फायदा पहुँचाने वाला होता है। उन्होंने कहा कि अगर सहते रहते तो आज भी क्यूबा के लोग गुलामों की तरह ही रह रहे होते। हमें गलत चीज़ों के खिलाफ खामोश नहीं रहना चाहिए। यही हमारी फिदेल को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उन्होंने नोटबंदी को गलत फैसला बताया और कहा कि इससे लोग परेशान हो रहे हैं, लेकिन बोल कुछ नहीं रहे हैं। उन्होंने कहा कि अब हमें बोलना होगा अगर हम चुप रहे तो इसके आज से भी ज्यादा घातक परिणाम होंगे।
कार्यक्रम के अंत में इप्टा के १४वें राष्ट्रीय सम्मेलन को कामयाब बनाने के लिए जुटे करीब ८० नौजवान लड़के-लड़कियों को आनंद मोहन माथुर जी के हाथों प्रमाण-पत्र देकर सम्मानित किया गया। ये नौजवान रूपांकन, इप्टा के ग्रीष्मकालीन शिविरों, सन्दर्भ केन्द्र और वर्चुअल वॉयेज कॉलेज के ज़रिये इप्टा से जुड़े हैं। ज्ञातव्य है कि २-४ अक्टूबर को इंदौर में हुए इप्टा के १४वें राष्ट्रीय सम्मलेन पर दक्षिणपंथियों ने हमला किया था। तब यह सब नए नौजवान साथी वालंटियर्स के तौर पर मौजूद थे और भयभीत होने के बजाय उन्होंने तार्किक तौर पर इप्टा के साथ अपने प्रगाढ़ करने का और भविष्य में भी जुड़े रहने का फैसला किया था।
फिदेल कास्त्रो को अपना सलाम पेश करने के लिए इंदौर जैसे घनघोर पूंजीवादी और दक्षिणपंथी होते जा रहे शहर में भी १५० से ज़्यादा लोग इकट्ठे हुए। सभागृह पूरा भरा हुआ था और अनेक लोग खड़े-खड़े पूरा कार्यक्रम देखते सुनते रहे। कार्यक्रम में सीपीआई, सीपीएम और एसयूसीआई के ज़िला सचिव क्रमशः कॉमरेड रुद्रपाल यादव, कॉमरेड कैलाश लिम्बोदिया और कॉमरेड प्रमोद नामदेव तो मौजूद थे ही, साथ ही अनेक अन्य ट्रेड यूनियनों, दलों और संस्थाओं से जुड़े वरिष्ठ और युवा मौजूद थे। समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद श्री कल्याण जैन ने भी फिदेल कास्त्रो को अपनी श्रद्धांजलि दी।
आयोजकों ने भोपाल गैस त्रासदी दिवस की बरसी पर मारे गए लोगों को याद करते हुए श्रद्धांजलि दी। साथ ही हिंदी और उर्दू ज़ुबानों के बीच मज़बूत पल की तरह सक्रिय रहे शायर बेकल उत्साही के निधन पर उन्हें भी श्रद्धांजलि दी गयी।