कविता का एक सिरा समाज से जुड़ा होता है तो उसके दुसरे सिरे को व्यक्ति थामे रहता है। इसलिए अगर कविता को हम व्यष्टि और समष्टि के बीच एक रचनात्मक पुल कहें तो गलत न होगा। कविता एक मन (कवि के मन) से बहती हुई दूसरे मन (सहृदय के मन) तक जाती है। लेकिन इस सफ़र में वह दरअसल एक पूरे समाज से होकर गुज़रती है। कविता की यह सामाजिक और निजी होने की ख़ूबी ही उससे सफल बनाती है। ऐसी कविता एक ऐसे ही कवी की क़लम से निकलती है जो अपने अंतः करण और बाहरी दुनिया दोंनो पर मज़बूत पकड़ रखता हो। अशोक वाजपेयी की यह चार कविताएँ उनकी वैचारिकी और रचना संसार की इसी खूबी को हमारे सामने लाती हैं।