Henri Matisse, 'The Reader, Marguerite Matisse', 1906 / Hugbear
अख़बार
रोज़ सुबह अख़बार
आपसे मिलने से पहले
खुद से मिलता है ।
रोज़ सुबह ख़ुद में
कई बदलाव पाता है ।
ख़बरें नहीं, शायद अब आंकड़े बताता है,
आज ८०, कल ९० ।
इंसान के साथ न रह पाने की कमज़ोरियाँ,
अलग अलग रूप में दिखाता है ।
रोज़ ख़ून में भीगा हुआ,
चीखों में लिपटा हुआ,
कहानियों के दर्द से
सहमा हुआ ।
आज बारूद से,
कल तलवार से,
एक दिन मज़हब से
और एक दिन रंग से ।
मौत के अलग अलग कारण
ढूंढता सा फिरता है ।
रोज़ सुबह अख़बार ख़ुद में एक बदलाव पाता है ।
कहानियाँ ढूंढता है वह विकास की,
पर आता उस तक बस अवरोध है,
बचपन की मासूमियत भी,
ढूंढने में वह शिकस्त है ।
लिखे हुए पन्नों में
इंसानियत ढूंढ रहा है वह,
सब कुछ मिल जाता है उसे,
कर साबित, कि रहे नहीं इंसान वह ।
रोज़ सुबह अख़बार ख़ुद में एक बदलाव पाता है ।
इतना अलगाव, इतनी हिंसा,
रोज़ किसी के चिथड़े जो उड़ा दे, वह हिंसा
फटे हुए शरीर,
रोंदी हुई आशा
फैला हुआ आक्रोश
चिल्लाता हुआ समाँ ।
कहाँ बहे सबा
क्या होगी कहीं ख़ुशबू?
जब नदियाँ अब बहें ख़ून की,
क्या रह पाएगा कहीं अब सुकूँ?
रोज़ सुबह अख़बार ख़ुद में एक बदलाव पाता है ।
खून में लिपटे हुए आंकड़े बताता है ।
ख़बरें अब चीखती, बिलखती हुई मिला करती है ।
इंसान में इंसानियत ढूंढा करती हैं ।
Saumya Baijal is co-founder of the street theatre group Aatish, and a budding writer and an advertising professional. She has been published in Jankipul, Writer's Asylum, Silhouette Magazine and the Equator Line, and blogs at saumyabaijal.blogspot.com.