Courtesy: Youth ki Awaaz
हाल ही में सफाई कर्मचारी आंदोलन की ओर से आयोजित ‘भीम यात्रा’ डिब्रूगढ़ से शुरू होकर तीस राज्यों और पांच सौ जिलों से होते हुए दिल्ली में पहुंची। सबरंग इंडिया शुरू से ही इस यात्रा के साथ रही।
यह देशव्यापी जागरूकता अभियान का समापन एक बड़ी रैली के रूप में हुआ और जिन परिवारों के सदस्यों की मौत सीवरों की सफाई करते हुए हो गई, उन्होंने एक जन-सुनवाई में अपनी पीड़ा सबके सामने रखी। इस अभियान में शामिल बहादुर लोगों ने सरकार, व्यवस्था और समाज की चेतना को झकझोरने के लिए ‘हमारी हत्या करना बंद करो’ का नारा दिया। सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक वेजवाड़ा विल्सन से सुभाष गाताडे की बातचीत के अंश।
मैला ढोने को लेकर समाज की सामान्य प्रतिक्रिया को आप कैसे देखते हैं और यह प्रतिक्रिया खासतौर पर भीम यात्रा के संदर्भ में क्या दिखी?
जैसा कि कोई भी देख सकता है कि नागरिक समाज मैला ढोने के चलन को खत्म करने के लिए बनाए गए कानूनों और नीतियों का प्रसार करने या जरूरत पड़ने पर पुलिस को खबर करने में अहम भूमिका निभा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। हकीकत यह है कि मैला ढोने के चलन को खत्म करने के लिए बनाए गए कानूनों के तहत किसी को सजा नहीं होती और जमीन पर हालात में कोई तब्दीली नहीं आई है। यह इस काम के जारी रहने में समाज की चुप्पी और मौन-सहमति को ही दर्शाता है।
सवाल यह उठता है कि जो ‘सभ्य नागरिक समाज’ बाकी सरोकारों के लिए आमतौर पर आंदोलित दिखता है, वह मैला ढोने के मुद्दे पर चुप्पी क्यों साध लेता है? मुझे लगता है कि यह सभ्य कहा जाने वाला नागरिक समाज इस समस्या के बारे में निश्चित तौर पर सब कुछ जानता है, लेकिन मानव मल की सफाई को लेकर फिक्रमंद है और इसीलिए चुप्पी साधे रहता है। ऐसे लोग इस बात की आशंका से चिंतित हैं कि अगर सफाई कर्मचारियों ने इस अपमानजनक काम को करना बंद कर दिया तो उनके मल की सफाई कौन करेगा। फिर शायद उन्हें अपने ही हाथों अपनी गंदगी को साफ करना पड़ेगा।
इस पाखंडी प्रवृत्ति का एक और पहलू है। जब भी मैला ढोने का मुद्दा सामने आता है, तो बहस इस तरह इस होने लगती है कि लोग इस ‘गंदा’ काम कह कर इसकी निंदा करने लगते हैं। बहसें कभी इससे आगे नहीं जातीं। मसलन, कि हम इस काम को छोड़ने वालों को कैसे प्रोत्साहित करें, उनका पुनर्वास करें।
मौजूदा सरकार की ओर से शुरू स्वच्छ भारत अभियान के बारे में आपकी क्या राय है?
स्वच्छ भारत अभियान के साथ बुनियादी दिक्कत यह है कि यह साफ-सफाई के मुद्दे को सामाजिक जड़ों के संदर्भों से काट देता है। बाबा साहेब की जन्म (14 अप्रैल, 1891) शताब्दी के साल 1991 के बाद से ही हमने पहली बार इस सफाई कर्मचारी के अभियान को शुरू किया। विरोध प्रदर्शनों और प्रचार के चलते धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ी जो हमारी बातों में दिखने लगी। भारत में साफ-सफाई का मुद्दा जाति और पितृसत्ता आधारित काम है और इसे हर हाल में इसी तरह समझा जाना चाहिए।
यह दलील धीरे-धीरे व्यापक स्वीकार्यता हासिल कर रही है। इसमें अब सीवर मजदूर से लेकर सेप्टिक टैंक भी शामिल हो रहे हैं। सच यह है कि इस काम में जितने भी लोग लगे हैं, उसकी वजह ऊंच-नीच पर आधारित जाति-व्यवस्था है जो कथित शुद्धता और प्रदूषण पर टिका है। लेकिन अब एक नई शुरुआत हो रही है, जिसमें लोग और खासतौर पर महिलाएं शुष्क शौचालयों को खत्म करने के लिए एक साथ आ रही हैं। साथ ही यह भी तय हो रहा है कि परिवारों की नई पीढ़ी को इस काम में नहीं लगाया जाए।
स्वच्छ भारत अभियान के तहत जिस तरह सफाई का काम कर रहा है, वह बेहद आपत्तिजनक है। यह सबको काम करने का आह्वान करता है। सबने प्रधानमंत्री को स्वच्छता की प्रतिज्ञा लेते हुए देखा हो सकता है कि अब हमारा कर्तव्य है कि गंदगी को दूर करके ही भारत माता की सेवा करें।
यह समूची अवधारणा जाति और सफाई के बीच अभिन्न संबंध को नेपथ्य में धकेल देती है, जहां आप बड़ी तादाद में मौजूद उन समुदायों की आलोचना करने लगते हैं जो सिर्फ यही काम करते हैं, लेकिन अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। जाति के मुद्दे की पहचान के बिना साफ-सफाई के सवाल पर बात करना नामुकिन था।
इसके अलावा, कोई भी अब यह समझ सकता है कि सबसे शीर्ष स्तर से जो कहा गया था, उसके बरक्स जमीन पर हकीकतें क्या हैं। स्वच्छ भारत अभियान शुरू हुआ था, तो कई सेलेब्रिटीज इसके साथ आए, वहां हाथ में झाड़ू लेकर फोटो खिंचवाने का कार्यक्रम हुआ। लेकिन आज तमाम तरह की गंदगी कौन साफ कर रहा है! सेलेब्रिटी या फिल्मी सितारे नहीं, बल्कि हम खुद भी यही कर रहे हैं। एक तरह से स्वच्छ भारत अभियान फिलहाल झाड़ू को उन समुदायों के बीच ग्लैमराइज करने की कोशिश कर रही हैं, महिलाओं को चाहिए कि वास्तव में झाड़ू उठाती है। हम सदियों से इस काम को करते आ रहे हैं, जो अपमानजनक है, काम की गरिमा को खत्म करता है, परदे के पीछे कर देता है और हमने साफ कर दिया है कि अब हम इस काम को नहीं करेंगे।
Courtesy Sabrang.