“हम खून की किश्तें तो कई दे चुके हैं, लेकिन
ऐ ख़ाक-ऐ-वतन, क़र्ज़ अदा क्यों नहीं होता।
ऐ खाके-ऐ-वतन, अब तो वफाओं का सिला दे
मैं टूटती साँसों की फ़सीलों पे खड़ा हूँ।”
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“हम खून की किश्तें तो कई दे चुके हैं, लेकिन
ऐ ख़ाक-ऐ-वतन, क़र्ज़ अदा क्यों नहीं होता।
ऐ खाके-ऐ-वतन, अब तो वफाओं का सिला दे
मैं टूटती साँसों की फ़सीलों पे खड़ा हूँ।”
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