• About Us
  • Contact Us
  • Copyright, Terms and Conditions
  • Events
  • Grievance Redressal Mechanism
  • Home
  • Login
Indian Cultural Forum
Guftugu
  • Features
    • Bol
    • Books
    • Free Verse
    • Hum Sab Sahmat
    • Roundup
    • Sangama
    • Speaking Up
    • Waqt ki awaz
    • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • Videos
  • Resources
  • Contact Us
    • Grievance Redressal Mechanism
  • About Us
No Result
View All Result
  • Features
    • Bol
    • Books
    • Free Verse
    • Hum Sab Sahmat
    • Roundup
    • Sangama
    • Speaking Up
    • Waqt ki awaz
    • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • Videos
  • Resources
  • Contact Us
    • Grievance Redressal Mechanism
  • About Us
No Result
View All Result
Indian Cultural Forum
No Result
View All Result
in Comment

हबीब तनवीर स्मृति शेष: एक लोकधर्मी आधुनिक नाटककार

byZahid Khan
June 9, 2022
Share on FacebookShare on Twitter
Image courtesy IWMBUZZ.com

आधुनिक रंगमंच में हबीब तनवीर की पहचान लोक को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाले महान रंगकर्मी की है। रंगमंच में अपने आग़ाज़ से लेकर अंत तक हबीब तनवीर उन सांस्कृतिक मूल्यों-रंगों को बचाने में लगे रहे, जिनसे हमारे मुल्क की मुकम्मल तस्वीर बनती है। उर्दू शायर नज़ीर अकबरावादी के फ़लसफ़े और ज़िंदगी पर मब्नी उनका नाटक ‘आगरा बाजार’ हो या फिर शूद्रक के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ पर आधारित ‘मिट्टी की गाड़ी’, हबीब तनवीर अपने नाटकों के ज़रिए अवाम को हमेशा गंगा-जमुनी तहज़ीब से जोड़े रहे। लोक परंपराओं में तनवीर का गहरा यक़ीन था। उनके नाटकों में हमें जो ऊर्जा दिखाई देती है, वह दरअसल लोक से ही अर्जित है। वे सही मायनों में एक लोकधर्मी आधुनिक नाटककार थे। उन्होंने जिस महारत से आधुनिक रंगमंच में लोक का इस्तेमाल किया, वह विरलों के ही बस की बात है। आधुनिक रंगकर्म का सम्पूर्ण अध्ययन होने के बावजूद, हबीब तनवीर ने अपने नाटक देशज रंग पद्धतियों के ज़रिए ही अवाम के सामने प्रस्तुत किए। उनका मानना था,‘‘पश्चिमी देशों से उधार लिए गए या की जा रही नकल वाले शहरी थिएटर का स्वरूप पूर्णतः अपूर्ण एवं अपर्याप्त है तथा सामाजिक अपेक्षाएं पूरी करने, जीवन के ढंग, सांस्कृतिक चलन को प्रदर्शित करने तथा तत्कालीन भारत की मूलभूत समस्याओं के निराकरण में अक्षम हैं। भारतीय संस्कृति के बहुआयामी पक्षों का सच्चा व स्पष्ट प्रतिबिम्ब लोक नाटकों में ही देखा व पाया जा सकता है।’’ हबीब तनवीर की ये सोच का ही नतीज़ा था कि उनके ज़्यादातर कामयाब नाटक या तो लोक नाटक हैं या फिर उनमें लोक तत्वों की भरमार है। उनका लोक से लगाव कोई रोमानी नहीं था, बल्कि वे इसे दिल से जीते थे। छत्तीसगढ़ के अनगढ़ लोक कलाकारों को उन्होंने एक बार अपने नाटक में शामिल किया, तो ये कलाकार हमेशा के लिए उनके नाटक दल के अभिन्न हिस्से हो गए। देश ही नहीं दुनिया भर में इन लोक कलाकारों को लेकर हबीब तनवीर ने न सिर्फ़ भरपूर नाम कमाया, बल्कि इससे भी बढ़कर भारतीय लोक परंपराओं को लोगों तक पहुंचाया। उन्होंने रंगमंच में उस वक्त प्रचलित विभिन्न धाराओं के बरक्स एक अलग ही तरह की रंगभाषा ईजाद की। एक नया रंग मुहावरा गढ़ा। लोक भाषा तथा दीगर मानक भाषाओं के बीच आवा-जाही के रिश्ते से बनी हबीब तनवीर की रंग भाषा, आगे चलकर नये सौन्दर्यशास्त्र का आधार बनी। नाटक में जिस लोकधर्मी ख़याल का हम तसव्वुर करते हैं, वह हबीब तनवीर के कमोबेश सभी नाटकों में मौजूद है। हालांकि ये उनका जोख़िम भरा क़दम था, लेकिन वे इसमें न सिर्फ़ कामयाब हुए, बल्कि भारतीय रंगमंच में एक नई शैली चल निकली। ‘हबीब तनवीर शैली’।

अपने जीते जी गाथा पुरुष बन जाने वाले हबीब तनवीर ने जब रंगमंच में पर्दापण किया, तब लोक सामायिक रंगमंचीय गतिविधियों की केन्द्रीय चिंताओं में कहीं से कहीं तक नहीं था। सभी नामचीन नाटककार और नाट्य निर्देशक पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे थे। इस लिहाज से देखें, तो हबीब तनवीर का लोक रूपों, लोक संस्कृति और प्रदर्शन में दिलचस्पी लेना, उस वक़्त के हिसाब से एक दम क्रांतिकारी क़दम था।

दरअसल, लोक संस्कृति को लेकर उनका नज़रिया अपने समकालीनों से बिल्कुल जुदा था। लोक के जानिब तनवीर का ये नज़रिया वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े रहने की वजह से बना था। अपने शुरुआती दौर में उन्होंने भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय रूप से भागीदारी की थी। बीसवीं सदी के चौथे दशक में मुल्क के अंदर तरक़्क़ीपसंद तहरीक अपने उरूज पर थी। इप्टा के नाटक अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता और सरोकारों के चलते पूरे मुल्क में मक़बूल हो रहे थे। इप्टा से जुड़े हुये अदाकर-निर्देशकों ने हिंदोस्तान में पहली बार लोक नाट्य स्वरूपों को समकालीन सार्थक रूप में प्रस्तुत किया।

हबीब तनवीर भी आज़ादी की जद्दोजहद के उस दौर में इप्टा के अभिन्न हिस्सा थे। एक वक़्त तो ऐसा भी आया कि उन्हें इप्टा को पूरी तरह संभालना पड़ा। जन आंदोलन के दौरान साथियों की गिरफ़्तारी के बाद, कुछ ऐसे हालात बने कि इप्टा की सारी ज़िम्मेदारी उनके ऊपर आ गई। साल 1948-50 के बीच उन्होंने नाटक लिखने के साथ-साथ उनका निर्देशन भी किया। अपने आत्मकथ्य ‘ए लाईफ इन थियेटर’ में हबीब तनवीर लिखते हैं, ‘‘दरअसल निर्देशन मुझ पर आरोपित किया गया। वह मेरा चुनाव नहीं था, मेरा चुनाव तो अभिनय था।’’ इप्टा से जुड़कर, उन्होंने कई नुक्कड़ नाटक लिखे और निर्देशित किए। ‘शांतिदूत कामगार’ उनका लिखा और निर्देशित पहला नाटक था। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित ‘शतरंज के मोहरे’, कृश्न चंदर का नाटक ‘मेरा गांव’, उपेन्द्रनाथ अश्क का ‘दंगा’, विश्वनाथ आदिल का ‘दिन की एक रात’ का उन्होंने इन्हीं दिनों निर्देशन किया।

साल 1954 में लिखा ‘आगरा बाज़ार’ वह नाटक था, जिसने हबीब तनवीर को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। अठारहवीं सदी के मशहूर अवामी शायर नज़ीर अकबरावादी की ज़िंदगी और रचनाओं पर आधारित नाटक ‘आगरा बाज़ार’ में उन्होंने न सिर्फ़ आम आदमी की ज़िंदगी और उसके रोजमर्रा के सरोकारों को अपना विषय बनाया, बल्कि लेखन में भी वह मुहावरा और तरीका बरता, जो पारंपरिक अभिजन कविता के आदाब और मौज़ूअ के बिल्कुल ख़िलाफ़ था। ये वह दौर था जब हिंदोस्तानी रंगमंच में हिंदोस्तानी, अपनी मिट्टी से जुड़ाव एवं शैली का डंका पीटने वाले नारे और मुहावरे ईजाद नहीं हुये थे। ‘आगरा बाज़ार’ हिंदोस्तान के रंगमंच में मील का पत्थर साबित हुआ। नाट्य आलोचक इकबाल नियाज़ी ने ‘आगरा बाज़ार’ का मूल्यांकन करते हुए लिखा है,‘‘आगरा बाज़ार जैसे नाटक की प्रस्तुति ने हिंदोस्तानी नाटककारों के सामने ये मिसाल पेश की, कि किस तरह यथार्थवादी ढांचों को पसंद करके पश्चिमी और पूर्वी ड्रामा रिवायतों से जुड़कर, एक नये तरह की तर्ज़ पर ड्रामों को प्रस्तुत किया जा सकता है। जिसमें लोक नाटक के फार्म को और उसके असर को जान-बूझकर ठूंसा नहीं गया है, फिर भी नाटक के डायलॉग से लोक नाटक की अदाकारी व कारीगरी के रंग फूटते हुए महसूस होते हैं।’’ नाटक ‘आगरा बाज़ार’ हबीब तनवीर के उन दो मरकजी रुझानों की ओर इशारा करता है, जो आगे चलकर उनके सारे नाटकों में दिखाई दिए।

पहला, विचारधारा और कलागत स्तर, उनका लोक जीवन, आम आदमी की ओर झुकाव। दूसरा, नाटक में शायरी और संगीत का इस्तेमाल। नाटक में उन्होंने यह प्रयोग महज़ खानापूर्ति के लिए नहीं किए, बल्कि ये सब उनके नाट्यकर्म का ज़रूरी हिस्सा थे। अपनी संगीतमयी प्रस्तुतियों के बारे में हबीब तनवीर का कहना था,‘‘मेरी प्रस्तुतियां संगीत प्रधान इसलिए भी रहीं हैं कि दोनों चीज़ों में मेरा थोड़ा बहुत दख़ल है, शायरी में भी ओर उसके बाद संगीत में।’’ बचपन में सुने 100-200 छत्तीसगढ़ी लोक गीत, तो उन्हें ऐसे ही मुंह ज़बानी याद थे।

‘आगरा बाज़ार’ की ज़बरदस्त कामयाबी के बाद हबीब तनवीर पेशेवर थिएटर की अपनी योजना को साकार करने में जुट गए। उनके इस प्लान को अमलीजामा पहनाने में मदद की बेगम क़ुदसिया ज़ैदी ने। थिएटर के लिए ज़रूरी स्क्रिप्ट बैंक और पैसों को जुटाने की ज़िम्मेदारी बेगम ज़ैदी ने अपने ज़िम्मे ले ली। इस तरह साल 1955 में दिल्ली का पहला व्यावसायिक थिएटर ‘हिंदुस्तानी थिएटर’ अस्तित्व में आया। ‘हिंदुस्तानी थिएटर’ के लिए तनवीर कोई नाटक निर्देशित करते, इससे पहले थिएटर की आला तालीम हासिल करने के इरादे से लंदन पहुंच गए। एक ब्रिटिश काउंसिल की स्कॉलरशिप और अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति डॉ. जाकिर हुसैन की आर्थिक मदद से उन्होंने लंदन के प्रसिद्ध थिएटर स्कूल ‘रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स’ यानी ‘राडा’ में दाख़िला ले लिया। हबीब तनवीर ने यूरोप में अपने तीन साल बिताए। इन तीन सालों में उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को करीब से देखा। ख़ासकर बर्लिन में तो तनवीर ने आठ महीने गुज़ारे, जहां जर्मन नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की नाट्य प्रस्तुतियां देखीं। बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटकों से हबीब तनवीर ने काफी कुछ सीखा। उनके नाटकों में हमें जो जनपक्षधरता दिखाई देती है, उसमें ब्रेख्त के नाटकों का बड़ा योगदान है।

हिंदोस्तान वापसी पर तनवीर की पहली प्रस्तुति हिंदुस्तानी थिएटर के बैनर पर हुई। शूद्रक के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के हिंदी अनुवाद ‘मिट्टी की गाड़ी’ को उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों के साथ रंगमंच पर उतारा। इस नाटक में उन्होंने पूरी तरह से लोक रंगमंच की पारंपरिक शैली और तकनीक का प्रयोग किया। नाटक को एक ख़ास हिंदोस्तानियत में ढाला। ज़ाहिर है, नाटक बेहद मक़बूल हुआ। ‘मृच्छकटिकम’ को उस वक़्त लोकधर्मी शैली में करना, वाक़ई एक क्रांतिकारी फ़ैसला था। संस्कृत पंडितों ने इस पर काफ़ी ऐतराज़ किया। उनका यह ऐतराज़, ख़ास तौर पर नाटक की शैली पर था। नाटक लोकधर्मी शैली में खेला गया और उनका कहना था कि नाटक क्लासिकी शैली में ही किया जाना चाहिए। हबीब तनवीर इन आलोचनाओं से बिल्कुल नहीं घबराए। संस्कृत नाट्य पंडितों के उलट तनवीर का मानना था कि लोक परंपराओं की मदद से ही संस्कृत नाटकों की शैली तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। लाख आलोचनाओं के बावजूद नाटक ‘मिट्टी की गाड़ी’ ने ही आधुनिक रंगमंच में संस्कृत नाटकों को प्रस्तुत करने का वह सहज और सरल रास्ता सुझाया, जो ठेठ हिंदोस्तानी था।

लोक अदब और लोक रिवायतों से हबीब तनवीर को बेहद लगाव था। उन्होंने कई लोक कथाओं को विकसित कर नाटक में तब्दील किया। मसलन ‘जालीदार पर्दे’-रूसी लोक कथा पर आधारित है, तो ‘सात पैसे’-चेकोस्लोवाकिया की लोककथा, ‘अर्जुन का सारथी’-छत्तीसगढ़ी कहानी, ‘गांव का नाव ससुराल, मोर नाव दामाद’-छत्तीसगढ़ी लोककथा, ‘ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह’-राजस्थानी लोककथा, ‘चरनदास चोर’-राजस्थानी लोककथा, ‘बहादुर कलारिन’-छत्तीसगढ़ी लोककथा, ‘सोनसागर’-बिहारी लोककथा, ‘हिरमा की अमर कहानी’-आदिवासी लोककथा पर आधारित नाटक हैं। इन नाटकों की ख़ासियत ये है कि तनवीर ने इन लोक कथाओं को सीधे-सीधे ड्रामा रूप में तब्दील नहीं किया है, बल्कि लोककथा के केन्द्रीय विचार को लेकर अपने हिसाब से नाटक में विस्तारित किया। इम्प्रोवाइज किया। यही नहीं इन नाटकों को उन्होंने मौजूदा परिवेश से भी जोड़ा, जो लोगों को ख़ूब पसंद आया।

बेगम ज़ैदी और उनके ‘हिंदुस्तानी थिएटर’ से हबीब तनवीर का साथ ज़्यादा लंबा नहीं चला। बेगम ज़ैदी से वैचारिक मतभेद के चलते, उन्होंने हिंदुस्तानी थिएटर छोड़ दिया और इस तरह साल 1959 में ‘नया थिएटर’ की नींव पड़ी। अदाकारा और डायरेक्टर मोनिका मिश्रा जो आगे चलकर तनवीर की ज़िंदगी की शरीक़—ए—हयात बनीं समेत नौ लोगों ने ‘नया थिएटर’ की बाक़ायदा इब्तिदा कर दी। ‘सात पैसे’, ‘रुस्तम सोहराब’, मोलियर का ‘द बुर्जुआ जेंटलमैन’, ‘मेरे बाद’ वगैरह ‘नया थिएटर’ के शुरुआती नाटक थे। दिल्ली में जीविकायापन के लिये हबीब तनवीर ने नाटक के साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता भी की। ‘लिंक’, ‘स्टेटसमेन’, ‘पेट्रिएट’ के लिये उन्होंने फ़िल्म समीक्षा, नाट्य समीक्षा आदि लिखीं। वे कुछ बरस सोवियत पब्लिशिंग महकमे में सीनियर एडिटर के ओहदे पर भी रहे। साल 1970 में सरकार ने उनकी नाट्य सेवा का सम्मान करते हुये ‘संगीत नाटक अकादमी’ पुरस्कार से नवाज़ा। अकादमी ने तनवीर से उनके मशहूर नाटक ‘आगरा बाज़ार’ का पुनर्सृजन करने के लिए कहा। इस बार तनवीर ने ‘आगरा बाज़ार’ के संगीत में छत्तीसगढ़ी लोकधुनों के अलावा दीगर प्रयोग किए, जो काफ़ी हिट रहे। नाटक बेहद मक़बूल हुआ। नाटक के सैकड़ों शो हुए। गोयाकि ‘आगरा बाज़ार’ ओर हबीब तनवीर एक दूसरे के पर्याय हो गए।

नाटक ‘चरनदास चोर’ तक आते-आते हबीर तनवीर ने अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। उनके नाटक ख़ालिस छत्तीसगढ़ी मुहावरे में खेले जाते। ‘अर्जुन का सारथी’, ‘गौरी-गौरा’, ‘चपरासी’, ‘गांव के नाव ससुराल, मोर नाम दामाद’ आदि नाटक पूरी तरह से छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य शैली नाचा में खेले गए। इन नाटकों को महानगरीय दर्शकों ने भी ख़ूब सराहा। साल 1975 में ‘चरनदास चोर’ के साथ ही तनवीर की शैली और प्रस्तुति ने अपनी पूर्णता पा ली। इसके बाद उन्होंने अपनी शैली को बिल्कुल नहीं बदला और आख़िर तक इसी शैली में नाटक खेलते रहे। नाटक ‘चरनदास चोर’ के कथ्य की ताज़गी और दिलचस्प व आकर्षक पेशकश ने पूरे मुल्क में तहलका मचा दिया। एक शुद्ध लोक कहानी को बिल्कुल नया रूप देकर, मौजूदा हालात से जोड़कर कैसे सामायिक बनाया जा सकता है ?, इसकी एक शानदार मिसाल है ‘चरनदास चोर’। साल 1982 में एडिनबरा के विश्व ड्रामा फेस्टिवल में बावन मुल्कों के ड्रामों के बीच ‘चरनदास चोर’ की कामयाबी ने हबीर तनवीर और नया थिएटर को दुनियावी स्तर पर मक़बूल कर दिया। ‘चरनदास चोर’ के ज़रिए तनवीर ने ये साबित कर दिखाया कि लोक परंपराओं के मेल और देशज रंगपद्धति से कैसे आधुनिक नाटक खेला जा सकता है।

हबीब तनवीर द्वारा विकसित रंगमंच सिर्फ लोक रंगमंच ही नहीं था, बल्कि वह आधुनिक रंगमंच भी था। तनवीर आधुनिक दृष्टि वाले नाट्य निर्देशक थे। उनके पास इतिहास और सियासत की गहरी समझ थी। उनका लोककला में दिलचस्पी लेना और लोक मुहावरों में काम करना, वैचारिक फ़ैसला था। और अपने इस फ़ैसले पर वे आख़िर तक क़ायम रहे। नाटक ‘आगरा बाज़ार’ से लेकर ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ तक उन्होंने दर्जन भर से ज़्यादा अर्थपूर्ण नाटक लिखे और निर्देशित किये। अपने नाटकों के ज़रिए वे दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ, उन्हें सम-सामायिक मुद्दों से भी जोड़ते रहे। हबीब तनवीर के हर नाटक में एक मक़सद है, जो नाटक के अंदर अंतर्धारा की तरह बहता है। मसलन नाटक ‘आगरा बाज़ार’ में भाषा और अदब के जानिब कुलीन और जनवादी नज़रियों के बीच कशमकश है, तो ‘चरनदास चोर’ सत्ता, प्रशासन और व्यवस्था पर सवाल उठाता है। ‘हिरमा की अमर कहानी’ और स्टीफ़न ज्वाईंग की कहानी पर आधारित ‘देख रहे हैं नयन’ सियासी नाटक हैं, जो हर दौर में सामायिक रहेंगे। ‘बहादुर कलारिन’ में वे सामंतवाद पर वार करते हैं। नाटक ‘जिन लाहौर नहीं देख्या, वो जन्मा ही नईं’ हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द पर और ‘पांगा पंडित’ समाज में व्याप्त छुआ-छूत को उजागर करता है। ‘मिट्टी की गाड़ी’ में वे समाज को लोकसत्ता से जोड़ने की ठोस कोशिश करते हैं। ऐसा नाटक जिसका कोई मक़सद न हो उसके हबीब तनवीर ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था,‘‘क्लासिक ड्रामे चाहे यहां के हों या पश्चिम के, अगर उनमें समाज के प्रति जागरूकता के आसार और समझ को झंझोड़ने की ताक़त नहीं हैं, तो वो मात्र ऐशो-आराम को ही बढ़ावा देंगे।’’ 8 जून, 2009 को हबीब तनवीर इस दुनिया से हमेशा के लिए जुदा हो गए।

आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन इस लोकधर्मी आधुनिक नाटककार का नाम और काम हिंदोस्तानी रंगमंच में हमेशा ज़िंदा रहेगा। भारतीय रंगमंच में कोई दूसरा हबीब तनवीर नहीं होगा।

First published in Newsclick.
Disclaimer: The views expressed in this article are the writer's own, and do not necessarily represent the views of the Indian Writers' Forum.

Related Posts

The Emergency Then: Life in Jail
Comment

The Emergency Then: Life in Jail

byPrabir Purkayastha
The Drunken Blues and the Swallowed Bhakti Poems of Arun Kolatkar
Comment

The Drunken Blues and the Swallowed Bhakti Poems of Arun Kolatkar

byDarius Cooper
Atmaram Salve: Sowing the sparks of revolution
Comment

Atmaram Salve: Sowing the sparks of revolution

byKeshav WaghmareandPeople's Archive of Rural India

Subscribe to Our Newsletter
loader
About Us
© 2022 Indian Cultural Forum | Copyright, Terms & Conditions | Creative Commons LicenseThis work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License
No Result
View All Result
  • Features
  • Bol
  • Books
  • Free Verse
  • Hum Sab Sahmat
  • Roundup
  • Sangama
  • Speaking Up
  • Waqt ki awaz
  • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • Guftugu
  • Videos
  • Resources
  • About Us
  • Contact Us
  • Grievance Redressal Mechanism

© 2022 Indian Cultural Forum | Creative Commons LicenseThis work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Create New Account!

Fill the forms bellow to register

All fields are required. Log In

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In