
कोरोना वायरस नामक इस बीमारी ने दुनिया भर में हाहाकार मचा रखा है। यह लड़ाई अभी लंबी है। भारत में संक्रमित मरीज़ों की संख्या 17000 के पार पहुँच गई है, और देश भर में 3 मई तक लॉकडाउन लागू किया गया है। ये वायरस अलग-अलग सतहों पर कुछ घंटों से ले कर कुछ दिनों तक रह सकता है।
पर हम उस वायरस का क्या करें जो आज से नहीं, ना जाने कितने अरसे से हमारे भारत देश में पनप रहा है। मैं बात कर रही हूँ जातिगत भेदभाव की, इस वायरस का क्या कोई इलाज है? देश में कोरोना के इस संकट के दौरान अलग-अलग हिस्सों से जातीय हिंसा की ख़बरें आ रही हैं।
19 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी जी ने ट्वीट तो कर दिया कि “COVID-19 जाति, धर्म, रंग, पंथ, भाषा या सीमाओं को नहीं देखता है, इसलिए सरकार की प्रतिक्रिया भी एकता और भाईचारे को प्रमुख मान कर चलेगी”, लेकिन क्या इस ट्वीट के वास्तविक तौर पर कोई मायने हैं या यह भी सरकार की ओर से रचा हुआ सिर्फ़ एक और ढोंग है?
देश में में 15 अप्रैल तक कोरोना से 405 लोगों की जानें जा चुकी थीं और भुखमरी से लगभग 200 लोगों की मौत हो गई थी। एक ऐसे समय में जहाँ लाखों लोगों के पास रोज़मर्रा की ज़िंदगी बसर करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, इसके बावजूद हमारे देश में जाति के आधार पर भेदभाव की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं।
मेरठ में 19 अप्रैल को वहां के प्रधान ने दो दलितों की लाठियों से बेरहमी से पिटाई की क्योंकि वे मुर्गियां पकड़ने की कोशिश कर रहे थे।
UP के कुशीनगर में दिल्ली से लौटे एक शख़्स ने संगरोध केंद्र में खाना खाने से मन कर दिया और अपने घर चला गया क्योंकि खाना एक दलित महिला ने बनाया था।
रीतिका खेरा, भारतीय प्रबंधन संस्थान की एक विकास अर्थशास्त्री ने VICE न्यूज़ से बात करते हुए कहा, “भारत एक तिगुने संकट से गुज़र रहा है: महामारी के कारण स्वास्थ्य संकट, लॉकडाउन के कारण आर्थिक और मानवीय संकट क्योंकि सरकार या तो यह महसूस नहीं कर पायी कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा कैसे जीवित रहता है या जानबूझकर उनकी स्थिति को अन-देखा कर रही है।”
जाति व्यवस्था, जिससे हमारा राष्ट्र ऊपर उठने का दावा करता है, ने ही यह सुनिश्चित किया है कि लॉकडाउन के इस समय में भी समाज के कथित निचले तबक़े के लोग ही अत्यंत ही आवश्यक सेवाएं– सफाई, डिलीवरी, मैनुअल स्कैवेंजिंग आदि प्रदान करते हैं।
जहाँ हम सब अपने घरों में बैठे हैं, वहां ये लोग हर रोज़ अपनी जान को ख़तरे में डालते हुए, हमारे लिए काम करते हैं। लेकिन समाज बदले में इन्हें क्या देता है? यही लोग, जब सड़कों पर काम के लिए निकलते हैं, तो पुलिस इनपर लाठियां बरसाती है, दुकानदार इन्हें राशन देने से मना कर देते हैं, इनके मालिक पगार देने से मना कर देते हैं। ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे ये इंसान ही ना हों!
लखनऊ के पेमपुर ज़िले में एक सफ़ाई कर्मचारी कुंवर पाल सोडियम हाइपोक्लोराइट का छिड़काव कर रहे थे और कुछ बूँदें वहां बैठे पांच लोगों पर गिर गईं, लोगों ने केमिकल कर्मचारी के मुँह में डाल दिया और फ़रार हो गए। कुंवर पाल ने अस्पताल में दम तोड़ दिया, उनकी शादी होने वाली थी।
मध्य प्रदेश में दो सफ़ाई कर्मचारियों को कुल्हाड़ी से मारने की कोशिश की गयी जब वे एक इलाक़े में सफाई करने गए।
तमिलनाडु में एक प्रवासी मज़दूर कोरोना के डर से गाँव लौटा और बीवी से मिलने की कोशिश की तो लड़की के घरवालों ने उसकी हत्या कर दी क्योंकि वो उनसे निचली जाति का था।
जब से लॉकडाउन हुआ है, विजयवाड़ा, आंध्र प्रदेश के एक पहाड़ी गाँव पोलम्मा में रहने वाले 57 परिवारों को खाने और दवा जैसे आवश्यक सामान ख़रीदने के लिए भी पहाड़ी से नीचे जाने से रोक दिया गया है क्योंकि वे निचली जाति के हैं।
मैं लिखती रह जाऊंगी मगर जातीय हिंसा की ये लंबी लिस्ट ख़त्म नहीं होगी। न जाने कितने लोगों पर अभी इस पल किसी न किसी प्रकार का अत्याचार हो रहा होगा।
यह सब सुन कर, अपनी आँखों से देख कर भी यदि अगर कोई ये सवाल करता है कि “क्या ये कोई वक़्त है जाति के बारे में बात करने का?”, तो यह सवाल कितना जायज़ है और ये सवाल पूछने वाले इंसान में कितनी इंसानियत है, ख़ुद से ज़रूर पूछियेगा।