आरएसएस के सरसंघचालक का मानना है कि लिंचिंग हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है और हिंदू एक निहायत अहिंसक समुदाय है। लिंचिंग की घटनाएँ न सिर्फ़ इससे उलट सच बयान करती हैं बल्कि यह भी बताती हैं कि इन्हें अंजाम देने वालों को हमारे देश का यह कुख्यात ‘सांस्कृतिक’ संगठन कैसे प्रेरणा, प्रोत्साहन, प्रशिक्षण और सुरक्षा प्रदान करता है। हिंदुत्ववादी गिरोह भीड़ की शक्ल में जो कांड कर रहे हैं, वह सिर्फ़ क़ानून और व्यवस्था पर नहीं, लोकतंत्र पर भी हमला है। यह लोकतंत्र की मॉब लिंचिंग है। इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ कई आंदोलन चले पर या तो वे इसे बदलने में सफल नहीं हुए या बीच में ही रुक गए। अब एक नई जाति विरोधी राजनीति की ज़रूरत है, जो लैंगिक, धार्मिक अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और वंचित तबकों के लिए संवेदनशील हो।
निम्नलिखित है वक़्त की आवाज़ श्रृंखला की चौथी किताब, लोकतंत्र की मॉब लिंचिंग से एक अंश।
शर्म एक ताक़तवर भावना होती है। शर्म की धारणा जाति और दूसरी सामाजिक पहचानों के परे जाती है। शर्म की भावना से व्यक्ति न सिर्फ़ ख़ुद के लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी सही-ग़लत का फ़ैसला करता है। जो भी तय धारणाओं के मोह में नहीं पड़ता, उसमें शर्म और अपराधबोध पैदा होता है। ऐसा इसलिए है कि ‘गरिमा’ और ‘पहचान’ की भावनाएँ शर्म के विपरीत हैं। यह आपस में पारस्परिकता की भावना पर आधारित होती हैं।
ब्राह्मणवाद, एक वैश्विक दृष्टि और दर्शन के हिसाब से पारस्परिकता को दबाता है। यह लोगों में अलग-अलग होने की भावना पैदा करता है और पवित्रता बनाम प्रदूषण के आधार पर हममें विशिष्टता का विचार पैदा करता है। ब्राह्मणवाद में ख़ुद अपनी पहचान के लिए दूसरे को अप्रासंगिक बनाकर सामाजिक गतिशीलता लाई जाती है। दूसरे शब्दों में, एक ब्राह्मण जिसे नहीं जानता या नहीं अपनाता, वह उसके लिए या तो अप्रासंगिक है या अस्तित्वहीन। इसलिए ब्राह्मणवाद की प्रकृति आतंरिक रूप से ग़ैर-संवादात्मक है। इसमें कर्मकांड पारस्परिकता की जगह ले लेते हैं।
जाति के ख़िलाफ़ होने वाले आंदोलनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि इन्हें उन प्रभावशाली जातियों से मान्यता लेना है, जो ख़ुद जाति की उपस्थिति का आधार हैं। यह नस्ल के मामले में भी है, जहाँ ‘दोहरे अवचेतन’ का निर्माण किया जाता है, जिसमें एक तरफ़ अपने मालिक की तरह दिखने की कोशिश है, तो दूसरी तरफ़ अलग पहचान बनाने की ज़िद भी। ब्राह्मणवाद अछूत जैसी
प्रथा से लोगों में बँटवारा कर इसे और आगे ले जाता है। इस तरह भौतिक और शारीरिक बँटवारे की तकनीक का इस्तेमाल प्रभावशाली दिखने और दूसरों को अलग दिखाने के लिए किया जाता है।
इसलिए ब्राह्मणवाद के चश्मे से देखी जाने वाली सामाजिक गतिशीलता में शर्म और अपराधबोध की भावना का निर्माण कठिन हो जाता है। यहाँ तक कि बेहद जघन्य हिंसा भी जनसमूह में सहानुभूति और दया पैदा नहीं कर पाती। मुस्लिमों के खून से लथपथ शरीर और बेसहारा दलितों की तस्वीरें उच्च जातियों में अपराधबोध पैदा नहीं करतीं, क्योंकि शर्म और अपराधबोध ब्राह्मणवाद द्वारा अलग कर दिए जाते हैं। एक आदमी लिंचिग करने वाली भीड़ की ज़िम्मेदारी नहीं लेता। लिंचिंग एक परिघटना के तौर पर उन लोगों को नहीं छू पाती जो वंचित सामाजिक तबकों से नहीं आते।
गाँधी ने इस प्रवत्तिृ का विरोध ‘अतंरात्मा की अपील’ से किया था। दैनिक जीवन में पारस्परिक सहभागिता के अभाव के चलते, अंत:करण का राजनीतिकरण करना ज़रूरी था। ब्राह्मणवाद बेहद अपारदर्शी और सुराख़दार है, क्योंकि यह अपने आपको प्राकृ तिक तौर पर सामाजिक गतिशीलता से ऊपर बताता है। यह किसी भी चीज़ पर दावा कर सकता है, क्योंकि इसकी बनाई दनिु या के बाहर कुछ भी नहीं है। ब्राह्मणवाद बिना समावशे किए दूसरे को अपने में समाता है। और बिना अंतर्विरोध के अलग भी करता है। इस तरह यह बौद्ध धर्म और अम्बेडकर जैसी उन राजनीतिक-सामाजिक ताक़तों का ख़दु में समावेश करने में कामयाब हो सका, जो ब्राह्मणवाद के आधार को चुनौती दे रही थीं।
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जब ब्राह्मणवाद ऐसी अंतर्विरोधी चीजों का समावेश करता है तो इसमें अपने मूलतत्व को खोने की चिंता नहीं होती। इसलिए अम्बेडकर ने साफ़ ऐलान किया था कि वे बतौर हिंदू नहीं मरेंगे। जबकि आज अम्बेडकर को हिंदू राष्ट्रवाद का हिस्सा बनाने की कोशिश हो रही है।
किसी मुस्लिम की लिंचिंग या दलित की पिटाई ब्राह्मणवादी व्यवहार और दर्शन के एक जटिल जाल की छन्नी से छान दी जाती है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणवाद, विचार और व्यवहार के अंतर पर चलता है, मतलब इसमें आपका विचार ‘पवित्र’ रह सकता है, भले ही आपके कर्म, विचार से मेल न खाएँ। बल्कि विचार की पवित्रता तभी बनी रह सकती है, जब यह कर्म से अलग हो। जैसे विचार, कर्म को प्रदर्शित नहीं करते, ठीक उसी तरह ज़रूरी नहीं कि कर्म विचारों को प्रदर्शित करें। इस तरह इसमें लिंचिंग, हमेशा हिंसा के इरादों को नहीं दर्शाती; बल्कि इसे ‘वक़्त और स्थिति की ज़रूरत’ मान लिया जाता है। इस तरह लिंचिग जैसा घृणित काम करने के बावजूद विचारों की ‘पवित्रता’ बनी रह जाती है। इस तरह कोई सही-ग़लत होने के दबाव से मुक्त होकर इन कर्मों को कर सकता है। ब्राह्मणवादी विचार का यह जटिल निर्माण भारत के बड़े मानस में मौजूद है। इसलिए भारत में भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा, समाज के सामने देश में बढ़ती असहिष्णुता का सबूत पेश नहीं कर पाती। तब यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि मॉब लिंचिंग पर चुप्पी सहमति को दिखाती है या उदासीनता को, और क्या उदासीनता अनिवार्यतः सहमति की ही सूचक है? मॉब लिंचिंग के विरोध में खड़ी होने वाली राजनीति के लिए असली चुनौती यही ‘अनुपस्थित सामूहिक चेतना’ है।
कैसे यह राजनीति मुस्लिमों और दलितों के लिए दया और सहानुभूति पैदा करेगी? कैसे यह सामूहिक अपराधबोध और शर्म की भावनाएँ पैदा करेगी? कैसे यह बताएगी कि ऐसी हिंसा सिर्फ़ पीड़ित पर असर नहीं करती, बल्कि यह घटनास्थल से दूर मौजूद हम जैसों के लिए भी ख़तरनाक है?
ब्राह्मणवादी विचार की प्रधानता इस मुद्दे की जड़ में है। अब ज़रूरी है कि पिछले अधूरे ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलनों के छूटे हुए धागों को पकड़ा जाए। इन आंदोलनों के सामने आई चुनौतियों और इनकी सीमाओं के परीक्षण की भी ज़रूरत है, ताकि एक नए तरीक़े की जाति विरोधी राजनीति की शुरुआत हो सके। इस राजनीति को लैंगिक, धार्मिक अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और भारत के वंचित तबकों के लिए संवेदनशील होना पड़ेगा।