(1)
सत्य को नीति के साथ होना था,
धर्म के साथ होना था,
न्याय के साथ होना था,
सत्य को सत्य होना था
लेकिन
नीति ने झूठ को अपना लिया,
धर्म शक्ति के साथ हो लिया
और न्याय सत्ता के दंड में समा गया।
सत्य फिर कहाँ जाता?
वह राजा की मुट्ठी में आ गया।
(2)
क्या नहीं था राजा की मुट्ठी में–
उसे धरती का भगवान मानने वाली जनता,
इशारों पर नाचनेवाले सभासद,
विरोध को कुचलने वाला तंत्र
मनमोहक प्रचार के यंत्र
देश देशांतर का आखेट
उद्योगपतियों का पेट
सबके आराध्य
जनता का भाग्य,
यहाँ तक कि
अपनी क्रूरता को छुपाने के लिए
साज शृंगार की अद्भुत छटाएँ।
(3)
राजा को नीति के साथ होना था,
धर्म के साथ होना था,
न्याय के साथ होना था,
इन सबके साथ-साथ
उसे सत्य के साथ भी होना था,
क्योंकि यही उसका वादा था;
इसलिए सत्य को उजागर करने की
माँगें उठने लगीं,
लेकिन राजा को सत्य से नहीं,
सत्ता से प्यार था।
(4)
सत्य के ठेकेदारों ने
आदिम स्वयंसेवी माध्यमों से किए जाने वाले
अपने प्रचार को
आभासी दुनिया पर फैलाया,
सत्य की गोपनीयता का मामला उठाया,
उसके उजागर होने में
नीति के ध्वंस, धर्म के नाश
और न्याय की अवमानना की दुहाई दी।
राजा ने सदा सर्वदा सत्य के साथ रहने का
अपना वादा दोहराया,
अपनी मुट्ठी में
सत्य को सर्वाधिक सुरक्षित बताया।
सत्य न हो सके कभी उजागर
इसके लिए चढ़ाया उस पर
झूठ का हिरण्मय आवरण ।
(5)
सत्य का सूरज अब उगे नहीं,
चढ़कर आकाश अब तपे नहीं,
अस्ताचलगामी हो
अपने आभास से, चांद के प्रकाश से
प्रत्यक्ष-परोक्ष,
कोई भी फलाफल सत्य का
किसी को भी मिले यदि,
दाता बस एक वही,
सत्य जिसकी मुट्ठी में,
मुट्ठी उस राजा की,
झूठ की खेती कर
जिसने यह सत्य रचा
कि जनता ने फिर से उसे सौंपी है सत्ता।