भारतीय इतिहास के संबंध में कई अधूरे और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण मौजूद हैं, जो कि दो मुख्य श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं – ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण और दलित-बहुजन दृष्टिकोण। इस लंबे विभाजन की वास्तविकता अभिजात्य वर्ग के उस प्रचलित व प्रभावी विमर्श से एकदम भिन्न है, जो कि अनेक तरीकों से अगड़ी जातियों के हितों की सेवा करता आया है। जैसा कि हम जानते हैं, ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण शक्तिशाली और सम्पन्न तबकों की सोच का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि दलित-बहुजन दृष्टिकोण (जिसमें कि हम दलित, आदिवासी और ओबीसी सहित सामान्य महिलाओं को भी गिनते हैं) तिरस्कृत और विभाजित बहुसंख्यकों के हक़ की बात करता है। अतीत के बारे में ब्राह्मणवादी और दलित-बहुजन दृष्टिकोण इतने भिन्न और परस्पर विरोधी हैं कि शायद भारत का असली इतिहास कभी भी विश्वसनीय रूप से ज्ञात या पुनर्निर्मित नहीं किया जा सकेगा। यह भारत की त्रासदी है, क्योंकि इसका विवादित इतिहास निकट भविष्य में वास्तविक इतिहास नहीं बन सकेगा। चूँकि इतिहास ही वर्तमान और भविष्य को अनेक ढंग से आकार देता है, इसलिए यह संपन्न और शोषित वर्ग के मन में परस्पर विरोधी भावनाओं को उभारता है। अब इतिहास को लेकर जो असहमतियां हैं, वे वास्तव में मौजूदा मुद्दों की समझ और व्याख्याओं के बीच की असहमतियां हैं। ये असहमतियां भारतीय समाज में फैले वास्तविक विभाजनों को और एक-दूसरे पर विश्वास के अभाव को व्यक्त करती हैं। कई लोग यह कह सकते हैं – और उनका कहना जायज भी है – कि इतिहास और वर्तमान को लेकर इस तरह की असहमतियां सिर्फ भारत तक सीमित नहीं हैं, वे अन्य देशों में भी पाई जाती हैं, लेकिन बहुत कम लोग इस बात को नकार सकेंगे कि भारत जैसे वर्णों व जातियों में विभाजित और पितृसत्तात्मक समाज में ये सामाजिक संघर्ष बहुत तीखे और उग्र हो सकते हैं।
इस प्रकार इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दुर्गा-महिषासुर विवाद में झलक रहे इतिहास का रहस्य एक नई दलित-बहुजन पीढ़ी को सता रहा है। यह पीढ़ी असल में इस बात को समझना चाहती है कि वे क्यों और कैसे इस शोषक जाति व्यवस्था के गुलाम हुए हैं, लेकिन चूँकि वे ज्ञान सृजन और इतिहास लेखन की पेशेवर विधा से एक अर्थ में या तो दूर हैं या बाहर कर दिए गए हैं, इसे समझने के क्रम में वे बार-बार अपने मौखिक इतिहास की उन्हीं कहानियों तक जा पहुंचते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं। वे जब वर्तमान में चल रहे भेदभाव सहित हाशिए पर धकेल दी गई अपनी जिंदगियों को देखते हैं, तब उनके दमन के इतिहास की इन व्याख्याओं को और बल मिलता है। मेरी दृष्टि में दलित-बहुजन का यह मौखिक इतिहास और उनका जि़ंदा अनुभव समाज-ऐतिहासिक सच्चाई के ज्यादा निकट है, यह उन ब्राह्मणी कथाओं के कुल जमा विस्तार और उनसे मिलने वाली सारभूत शिक्षाओं की तुलना में सच्चाई के कहीं ज्यादा निकट है, जो कि मीडिया और शिक्षा जगत द्वारा मानक इतिहास की तरह बताई जाती हैं।
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आइए महिषासुर के प्रतीक के पीछे छुपे हुए वृहद् अर्थ को जानने के पहले हम इस मिथक और इससे जुड़़े विवाद के बारे में कुछ बुनियादी तथ्यों को जान लेते हैं। महिषा को मारने वाली दुर्गा की कथा, जो कि इतिहास को छुपाने के उद्देश्य से एक धार्मिक मिथकीय उपकरण के रूप में रची गई है, जो कि दुर्गा पूजा का आधार बनाती है, उसे हम सब जानते हैं। इसका मूल ग्रंथ ‘देवी महात्म्य’ है, जो कि पांचवीं से लेकर सातवीं शताब्दी के बीच मार्कण्डेय पुराण में एक कविता के रूप में लिखा गया है। इस मिथक का कथानक और इसकी जटिलता यह संकेत करती है कि देवी महात्म्य, असल में किसी अन्य प्राचीन संस्कृत या प्राकृत ग्रंथ का पुनर्लेख है। प्राचीन लेखनों में दुर्गा (जिसका शाब्दिक अर्थ दुर्जेय होता है) पहले-पहल चंडिका (भयावह) के रूप में प्रकट होती है। यह युद्ध की देवी उन पुरानी मोहक जादूगरनियों की परंपरा को एक हिंसक ऊंचाई तक उठा ले जाती है, जिसमें मोहिनी (वेश परिवर्तित विष्णु) और तिलोत्तमा (एक अलौकिक सुंदरी) असुरों या अनार्यों को मोहित करती हैं ताकि सुर या आर्य ब्राह्मण उन्हें पराजित कर सकें। चूंकि दुर्गा वह पहली देवी है, जिसने स्वयं ही असुरों और उनके नेता महिषा को अपने हाथों मार दिया, यही बात दुर्गा को इतना महत्वपूर्ण बनाती है।
सिंह की सवारी करनेवाली तेजस्विनी देवी दुर्गा की वह कथा, जिसमें वह आठ भुजाओं में भयानक हथियार थामे हुए महिषा और उनकी सेना का कत्लेआम करती हैं, ब्राह्मणवादी परंपरा में अशुभ पर शुभ की विजय के रूप में देखी जाती है। इसी दुर्गा, जो कि शक्ति और सौंदर्य का प्रतीक हैं, को आजकल के ब्राह्मणवादी रुझान की लेखिकाओं और लेखकों ने अपने लेखन में एक अभूतपूर्व नारीवादी प्रतीक के रूप में पुनर्जीवित किया है। वे दावा करते हैं कि केवल भारत ही ऐसा देश है, जिसमें सुंदरी और शक्तिमती देवियों के ऐसे विस्मयकारी रूपों की कल्पना की गई है, जो कि पुरुष देवों से भी कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं।
यह मान्यता निम्नलिखित प्रश्न खड़े करती है :
§ क्या दुर्गा सच में शुभ की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है अथवा क्या वह षड्यंत्रकारी देवताओं के हाथ में एक उत्साही उपकरण मात्र थी, जो कि साम-दाम-दंड-भेद से किसी भी तरह असुरों को खत्म करना चाहते थे?
§ क्या महिषा एक अत्याचारी दैत्य था, जैसा कि ब्राह्मणवादी कथाओं में बताया जाता है या कि वह अनार्यों का एक न्यायप्रिय राजा था, जिसे धोखे से खत्म कर दिया गया?
§ और, क्या नारीवादी शक्ति के दावे में कोई सार है या कि यह ब्राह्मणवादी कल्पना की ईजाद है या खुद के महिमामंडन के लिए किया गया उपाय है?
§ सबसे महत्वपूर्ण, क्या हिंसा और हत्या की राजनीति को धार्मिक रंग देकर प्रचारित करना और उसका उत्सव मनाना उचित है?
दलित-बहुजन को ये ही प्रश्न या शंकाएं आंदोलित करती हैं। वे इनको अनेक ढंगों से आक्रामक रूप में व्यक्त करते हैं और अक्सर ही इतिहास के दमन को आज के दमन से जोड़कर रखते हैं।
यह बहुत संभव है कि दुर्गा का मिथक किसी ऐतिहासिक घटना का संशोधित व विकृत रूप हो, जिसका संकेत हमें खुद ब्राह्मणवादी स्रोतों से मिलता है। कई संस्कृत ग्रंथ हैं, जो कि दुर्गा और महिषा के कामुक संबंधों का वर्णन करते हैं। उदाहरण के लिए देवी भागवत पुराण बहुत स्पष्टता से बताता है कि देवताओं ने देवी को उत्पन्न किया और देवी ने महिषा को काम-मोहित करके उनकी हत्या की। महिषा की यह धोखे से की गई हत्या ही दलित-बहुजन को उत्तेजित करती है और इस मिथक के विपरीत पाठ को जन्म देती है। उनका तर्क है कि महिषा जैसे दैत्य बना दिए गए असुर, असल में उनके महान पूर्वज थे, जो कि आर्य ब्राह्मण हमलों के खिलाफ लड़े थे। वे इस तथ्य को अपने वृहत्तर तर्क से भी जोड़ते जाते हैं, जिसके अनुसार ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था एक हिंसक प्रक्रिया के तहत बुनी गई है, जिसे दुर्गा-महिषा जैसे पुराणों के आख्यानों द्वारा ऊल-जलूल और चमत्कारिक बातों के पर्दे में छुपाया जाता है। इन मिथकों के अपने विद्रोही पुनर्पाठ को वे अन्य ब्राह्मणवादी ग्रंथों जैसे कि धर्मशास्त्रों से भी जोड़ते जाते हैं। ये ग्रंथ इस बात की घोषणा व प्रचार करते हैं कि ब्राह्मणों और अन्य ऊंची जातियों का ज्ञान, सत्ता और वैभव सदैव ही शूद्रों और अतिशूद्रों के बारंबार मजबूत किए गए अज्ञान, कमजोरी और दरिद्रता पर आधारित होने चाहिए।
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यह दृष्टिकोण भारत भर में फैली कई दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों में प्रचलित उन मान्यताओं से समानता रखता है, जो कि महिषासुर को अपना नायक समझती हैं। साथ ही यह दृष्टिकोण कई राज्यों के उन ऐतिहासिक स्थानों से भी साफ झलकता है, जो कि महिषासुर के सम्मान में बनाए गए हैं। मैसूर जैसा नगर (जो कि अंग्रेजी उच्चारण में मैसूर बन गया है) का नाम महिषासुर के नाम पर रखा गया है और यह बात बहुत विश्वस्त ऐतिहासिक स्रोतों से सिद्ध भी होती है। दूसरे शब्दों में दलित-बहुजन की नजर में महिषासुर-दुर्गा मिथक का ब्राह्मणवादी रूप कुछ और नहीं, बल्कि एक दुष्प्रचार मात्र है। दलित-बहुजन को जो बात सबसे ज्यादा खटकती है, वह यह कि उनको शूद्र बनाने की या सामाजिक रूप से गुलाम बनाने की प्रक्रिया को ब्राह्मणवादी संस्कृति ने एक धार्मिक स्वरूप दे डाला है। लेकिन जहां ब्राह्मणी धर्म-संस्कृति में पीडि़त जनों का दमन एक पवित्र नियम बना दिया गया, वहीं ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष की एक लंबी परंपरा भी रही है, जिसे दलित-बहुजन विचारधारा कई तरह से बहुत प्रभावशाली ढंग से रेखांकित करती आई है। ब्राह्मणवाद के विरोध की यही सुदीर्घ परंपरा, जिसे आधुनिक समय में फुले-आंबेडकर और पेरियार ने सींचा है, उस दलित-बहुजन की नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करती है, जो दुर्गा पूजा को अपने खिलाफ एक हिंसक परंपरा के जीवंत प्रतीक के रूप में देखते हैं। हिंसा के इस महिमामंडन के विरोध के द्वारा वे उस महिषा की शहादत को श्रद्धांजलि देते हैं, जिन्हें कि काम-मोहित करके धोखे से मारा गया और ये संकेत कई ब्राह्मणी ग्रंथों से मिलते हैं। इसी तरह यह तर्क भी दिया जा सकता है कि प्राचीन भारत में दुर्गा और अन्य देवियों के बारे में स्त्री शक्ति होने का जो अभूतपूर्व दावा किया जाता है, वह स्वयं में संदेहास्पद तर्कों पर आधारित है। सर्वप्रथम जैसा कि देवी महात्म्य और अन्य ग्रंथ बताते हैं, दुर्गा की शक्ति उनके स्वयं के भीतर से नहीं आती, बल्कि देवताओं के तेज से आती है। दूसरा यह कि देवी स्वयं में कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं, बल्कि उन षड्यंत्रकारी देवताओं के हाथ में एक उत्साही उपकरण मात्र हैं जो कि अपने मुख्य शत्रुओं को जीतने के लिए उन्हें उपयोग भर कर रहे हैं। देवी के इस कथानक में नारीवादी मुक्ति की खोज असल में चांद मांगने के समान है, जो किसी को नहीं मिलता। जैसा कि हिंदू धर्म व मिथकों पर गहन शोध करनेवाली वेंडी डोनिगर समझदारी से नोट करती हैं, ”दैवी नारीवादियों और अन्य लोगों की यह सदिच्छा कि देवी पूजा स्त्रियों के लिए शुभ है, असल में भारत के उन हालातों को देखते हुए स्वयं ही खत्म हो जाती है, जहां राजनीतिक-आर्थिक शक्ति के संदर्भ में देवी में आरोपित उन शक्तियों को स्त्रियों को उपलब्ध कराने की अनिवार्य प्रेरणा पुरुषों में नहीं होती, न ही यह प्रेरणा स्त्रियों में होती है कि वे पुरुषों से ये शक्तियां ले सकें। निश्चित ही हम इस तथ्य का तर्क देख सकते हैं कि यह विपरीत ढंग से काम करता है (देवी जितनी शक्तिशाली होगी, वास्तविक स्त्री उतनी कमजोर होगी) … देवियों के मिथकों को एक सामाजिक विधान की तरह देखने वाले दैवीय नारीवादी एक दलदली भूमि पर खेल रहे हैं।”
सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह जानना बहुत कठिन नहीं है कि ब्राह्मणी परंपरा में देवियों की पहचान और महिमामंडन पौराणिक काल में हुआ है, जबकि इसमें कई मूलनिवासी और जनजातीय अभ्यासों को आत्मसात किया जा रहा था, ताकि विरोधी जनसामान्य को ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के पक्ष में फुसलाया जा सके। अनार्य समुदायों में भी, जिनमें जाहिर तौर पर एक मातृसत्तात्मक रुझान था, वे भी अपनी देवियों को पूजते आए हैं, जिनमें चंडिका और दुर्गा भी शामिल थीं। अन्य शब्दों में कहें तो ये नाम आर्य ब्राह्मणों द्वारा षड्यंत्रपूर्वक अपना लेने के पहले भी अनार्य परंपराओं में प्रयोग में बने हुए थे। यह भी उल्लेखनीय है कि आर्य ब्राह्मणों से भी सदियों पहले कुषाणों ने अपने सिक्कों में देवियों को स्थान दिया है। जैसा कि डोनिगर बतलाती हैं, पौराणिक काल के किसी बिंदु पर जबकि ब्राह्मणवादी भक्ति परंपरा का उदय हो रहा था, उस समय स्थानीय मूलनिवासी जनों में देवी की पूजा जारी थी। इन देवी पूजकों की विराट संख्या ने संस्कृत पाठों के ब्राह्मणी संरक्षकों को अपने पाठों में इस देवी पूजा का उल्लेख करने के लिए विवश कर दिया। इस प्रकार ब्राह्मणवादी ढांचे में इन देवियों का पुन: आविष्कार और उन्हें असुरों (जो कि निश्चित ही दलित-बहुजन के पूर्वजों का कूट नाम है) के खिलाफ युद्ध की मशीनों में बदल देने की यह चाल आर्य ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मास्त्र साबित हुई। इसने सदियों के विस्तार में फैले हिंसक आर्य-अनार्य संघर्ष की स्मृति को मिटा दिया। इसी स्मृति के खंडित और विकृत रूप को हम वेद-पुराण और अन्य ब्राह्मणी ग्रंथों में पाते हैं।
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जाति व्यवस्था और उस पर आधारित धर्म को स्थापित करने के लिए ब्राह्मणवाद ने जनता में अज्ञान को बढ़ावा दिया और स्त्रियों व निचली जातियों की मुक्तिदात्री शिक्षा को रोक दिया। यही वह परंपरा है, जिसे आरएसएस इतना सम्मान देता है और हिंदू राष्ट्रवाद के झंडे तले फैलाना चाहता है। इसके द्वारा भारतीय समाज व संस्कृति के बारे में पुराने और नए ब्राह्मणवादी मिथकों का पुन: आविष्कार और प्रचार असल में दमन की नई सत्ता का निर्माण करता है। संघर्षरत दलित बहुजन के लिए इन दमनकारी ताकतों के बारे में एक धारदार समझ रखना और इन ताकतों को सिरे से नकारना जरूरी है, ताकि मुक्तिकामी सांस्कृतिक आंदोलन को आरंभ किया जा सके और दुर्गा-महिषा की कथा का यह प्रति-पाठ असल में इसी मुक्तिकामी सांस्कृतिक संघर्ष का एक हिस्सा है।
(अंग्रेजी से अनुवाद: संजय जोठे)