सेंट्रल दिल्ली शहर और देश के लिए एक महत्वपूर्ण इलाका है. यहाँ देश की संसद से लेकर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रियों और प्रमुख विभागों के मुख्यालय स्थित हैं. ऐसा अमूमन कम ही होता है कि सेंट्रल दिल्ली में कुछ हो रहा हो और वह सुर्ख़ियों का हिस्सा ना बने पर पिछले तीन दिनों से संसद मार्ग पर चल रहे मजदूरों के महापड़ाव को सुर्खियाँ तो दूर किसी अखबार या टीवी न्यूज़ चैनल के साइड रेफ़रेंस तक में जगह नहीं मिली.
फेसबुक पर एक मित्र की पोस्ट से मुझे इस महापड़ाव के बारे में मालूम चला. बंगला साहिब गुरुद्वारे से जब संसद मार्ग की और मुड़ा तो कुछ टुकड़ियों में 100-200 लोग अपने-अपने संगठन के झंडों के साथ दिखाई दिए. यह उस दावे से परे था जो मैंने फेसबुक पर पड़ा था जिसमें हजारों लोगों की संख्या बताई गयी थी. वह दावा भी सत्यापित हो गया जब मैं संसद मार्ग के चौराहे पर पहुंचा. स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के दफ्तर के सामने से लेकर सड़क के अंत तक एक पूरा जनसैलाब और चारों तरफ लाल झंडे.
हज़ारों की संख्या में अलग-अलग संगठनों से मज़दूर मोदी सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों के खिलाफ एक संगठित विरोध प्रदर्शन के लिए तीन-दिवसीय महापड़ाव के लिए यहाँ जुटे थे. लोगों के हावभाव से यह बिल्कुल भी नहीं लगा कि सब यहाँ तीन दिनों से जमा हैं. महापड़ाव का तीसरा और अंतिम दिन होने के बावजूद लोग जोश से भरे हुए थे. इस महापड़ाव की एक ख़ास बात लगी जो इसे बाकी आंदोलनों से अलग बनती है; वह थी इसमें महिलाओं की भागीदारी- महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी. कई ग्रुप्स में महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी थे. जंतर मंतर पर अमूमन दिखने वाले होकर्स की उपस्थिति से महापड़ाव में एक मेले की तस्वीर बनी हुई थी. रंग-बिरंगे माहौल में मंच से हर वक्ता सरकार को हुँकार रहा था. प्रदुषण की जद में कैद शहर में इन लोगों का हौसला देखते ही बनता था. 70-80 के ग्रुप्स में लोग अपनी अपनी भाषा में सरकार को संघर्ष के नारों के साथ ललकार रहे थे. जब मैं महापड़ाव में आया तो इस ख्याल के साथ आया था कि महापड़ाव नोटबंदी और GST के विरोध में एक प्रदर्शन है पर लोगों से बात करने पर पता चला कि महापड़ाव सिर्फ नोटबंदी और GST तक ही सीमित नहीं है. मज़दूर संगठनों ने सरकार के सामने अपनी 12 सूत्रीय मांगे रखी हैं. आंगनवाड़ी कर्मचारी, आशा वर्कर्स, बिजली यूनियन, मज़दूर यूनियन जैसे अनेक संगठन एक मंच पर आकर सरकार को ललकार रहे थे. इस बीच वहाँ कुछ लोगों से बातचीत हुई. उसका संक्षिप्त में लेख कर रहा हूँ.
पूर्वी दिल्ली से आए राजू पासवान ने कहा कि मौजूदा सरकार मजदूरों के खिलाफ काम कर रही है. मजदूरों के लिए बने कानूनों को दुरुस्त करने की बजाय मोदी सरकार उन कानूनों में फेरबदल कर मालिकों को फ़ायदा पहुंचाने का काम कर रही है l इससे ये हो रहा है कि मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिल रही है. यह सरकार निजीकरण को बढ़ावा देने के लिय सालों तक मजदूरों द्वारा संघर्ष कर अपने हितों की रक्षा के लिए बनाए गये कानून निरस्त कर अमीरों को मजदूरों के हनन की खुली छूट दे रही है.
उतराखंड के बिजली यूनियन के प्रतिनिधित्व के तौर पर महापडाव में आये अशोक शर्मा ने बताया कि उनके राज्य में चाहे जिसकी भी सरकार हो, उसने हमेशा बिजली कर्मचारियों की मांगों को दरकिनार किया है. उनसे पता चला कि उतराखंड का बिजली विभाग नियमित कर्मचारियों की बजाय कॉन्ट्रैक्ट पर लोगों को काम पर रखता है. यह प्रक्रिया ठेकेदारों के माध्यम से पूरी की जाती है. कई कर्मचारी है जो पिछले 10 साल से कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं और कुछ तो काम करते-करते रिटायर तक हो चुके हैं. सरकार साल-दर-साल नियमित नौकरियां ख़त्म कर कॉन्ट्रैक्ट पर ही लोगों को नियुक्त कर रही है. कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे कर्मचारियों को वो कोई सुविधा नहीं दी जा रही जो विभाग के एक नियमित कर्मचारी को दी जाती हैं. इनकी प्रमुख मांग है कि बिजली विभाग और अन्य सरकारी विभागों में नियमित भर्तियाँ निकाली जाए और अभी जो कर्मचारी कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं उन्हें सरकारी लाभ दिए जाएँ.
पंजाब के आंगनवाडी वर्कर्स के संगठन की सदस्या माया कौर जी से बातचीत में पता चला कि केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर आंगनवाडी ख़त्म करने का काम कर रही हैं. नोटबंदी और GST के बाद सरकारें आंगनवाडियों को बंद कर उनकी कमर तोड़ रही है. आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाएं अनियमित वेतनमान और सरकार के ढुलमूल रवैय्ये से परेशान हैं. उनके साथ ही आशा कर्मचारी यूनियन की महिलाओं से भी बात हुई. उनका कहना था कि सरकार उनसे घंटों काम लेती है और वेतन के नाम पर 1200 प्रति महिना वेतन दिया जाता है और यह वेतन तक उनका पिछले कुछ महीनों से रुका हुआ है. सरकार से उनकी मांग है कि उन्हें नियमित किया जाए, उन्हें साल में पहनने को 2 वर्दी मुहैय्या कराई जाए, एक नियमित कर्मचारी को जो सुविधायें सरकार द्वारा दी जाती हैं, वह सुविधाएं उन्हें दी जाए. न्यूनतम वेतन का मुद्दा आशा कर्मचारी यूनियन का भी मुद्दा था और यह एक मुद्दा था जो विभिन्न लोगों से बातचीत में बार-बार उठा.
इस महापड़ाव में मेरे लिए सबसे हैरान करने वाली रही मीडिया की अनुपस्थिति- आज सुबह के अखबार में भी कहीं कोई ख़बर नहीं थी जिससे पता चलता कि शहर में एक ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन के लिए देश भर से मज़दूर जमा हैं. यह हैरान करने वाला इसलिए भी था क्यूंकि राजनीतिक चिन्तक विपक्ष पर अक्सर यह कह कर हमलावर होते हैं कि विपक्ष सरकार की नीतियों के विरोध में सड़कों पर नहीं उतर रहा है. आज जब राष्ट्रीय राजधानी के बीचों-बीच सरकारी नीतियों के विरोध के लिए देश भर से लोग जमा थे तो मीडिया से उन्हें मिला तो बस ब्लैकआउट. इसमें मीडिया यह कह कर भी नहीं बच सकती कि कवर करने के लिए उनके पास संसाधनों की कमी थी जैसा वो देश के किसी और हिस्से में हो रहे प्रदर्शनों को ना कवर कर पाने को मज़बूरी का नाम देकर कहती है. संसद मार्ग प्रेस क्लब से बस 1 किलोमीटर की दूरी पर है. यह देश के लोगों का दुर्भाग्य ही है कि मीडिया जितनी दिलचस्पी अपने यहाँ कॉन्क्लेव या साहित्य आजतक, कलतक और परसों तक और ऐसे इवेंट्स कराने में दिखाती है, वही मीडिया मज़दूरों और किसानों के मुद्दों पर एक सामूहिक चुप्पी साध लेती है. चाहे प्रिंट हो या टीवी मीडिया, ज्यादातर मीडिया समूहों ने इस महापड़ाव की कवरेज को तवज्जो देना ज़रूरी नहीं समझा. लोकतंत्र का चौथा स्तम्ब देश के सबसे शोषित वर्ग, मज़दूर, किसान, महिलाएं, इनकी मांगों और इनके प्रदर्शनों को अहिमयत देना ज़रूरी नहीं समझता.
घर आकर मालूम चला कि महापड़ाव मौजूदा सरकार की नीतियों की विरोध में संघर्ष की आग में आहुति भर था. सर्वसम्मति से सारी यूनियंस ने आन्दोलन को जारी रखने का नया कार्यक्रम घोषित किया है. इस कार्यक्रम में मजदूरों के जेल भरो आन्दोलन से लेकर बजट के दिन सरकार की नीतियों के विरोध में समूचे देश में आंदोलन करने का संकल्प लिया गया. चूँकि निजीकरण मज़दूर विरोधी है, इसलिए यह भी फ़ैसला लिया गया कि जहां भी निजीकरण होगा वहां साझी हडतालें की जाएंगी. इसके अलावा नोटबंदी, GST और सरकार की अन्य व्यापारी और मज़दूर-विरोधी नीतियों का विरोध लोकल, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर जारी रहेगा. तीन दिन का महापड़ाव 11 तारीख को ख़त्म हुआ. मज़दूर एकता जिंदाबाद और संघर्ष हमारा नारा है जैसे नारों के उद्गोष के बीच से मैं घर की ओर मुड़ा; शहर बदस्तूर चल रहा था. मीडिया की तरह शहर ने भी मज़दूरों को ब्लैकआउट कर दिया था.